इस लेख में, आप पढ़ेंगे :
हिमालय के नीरव मंगल-मोड़ों में रक्तिम आकाश के नीचे एक पथिक-सन्न्यासी ने अपने गुरु से तंत्र और संभोग के विषय में एक प्रश्न पूछा :
“क्या यह सत्य है, गुरुजी, कि तंत्र का सम्बन्ध संभोग से है?”
गुरु हल्का मुस्कुराए, “यदि तुम्हें केवल संभोग ही दिखता है, तो वही मिलेगा। पर यदि तुम्हें प्रियतम में भी दिव्यता दिखाई दे, तो स्पर्श भी मोक्ष बन जाता है।”
आधुनिक समय में तंत्र एक अत्यधिक भ्रमित कर दिया गया शब्द बन गया है। कभी जिज्ञासा से फुसफुसाया जाता है,
कभी अज्ञानवश उपहास किया जाता है और कभी उन लोगों द्वारा दुरुपयोग किया जाता है जो आध्यात्मिकता का वस्त्र धारण किए रहते हैं। तंत्र भोग-विलास का अनुज्ञापत्र नहीं, वरन् अतीन्द्रिय-उत्क्रमण का मार्ग है।
यह मार्ग दुर्बल-हृदयों के लिए नहीं है। यह आपसे जीवन से मुँह मोड़ने को नहीं कहता और न ही बिना विवेक के सुख का अनुगमन करने को। यह आपसे आपकी ही इच्छा-अग्नि में प्रवेश करने और शुद्ध चेतना बनकर बाहर आने को कहता है।
आइए आज इस मार्ग पर सौम्यता से चलें—यह समझते हुए कि तंत्र में मोक्ष का वास्तविक स्वरूप क्या है, तंत्र से जुड़े भ्रमों के कुहासे को दूर करते हुए, और अपने काल का एक अत्यन्त सच्चा प्रश्न समझते हुए—क्या तंत्र विवाह-पूर्व अन्तरंगता को स्वीकार करता है?
तंत्र में मोक्ष : जगत के माध्यम से, न कि जगत से
अधिकांश आध्यात्मिक मार्ग कहते हैं, “शान्ति पाने के लिए संसार से परे जाओ।” तंत्र अपनी निडर प्रज्ञा में कहता है, “संसार को ठीक प्रकार से देखो, और तुम्हें ईश्वर दिखाई देंगे।”
मोक्ष, या मुक्ति, तंत्र में जीवन से पलायन नहीं, बल्कि उसका गहन आलिंगन है। यह मृत्यु के बाद प्राप्त होने वाली कोई वस्तु नहीं है—यह वह अनुभूति है कि आप आरम्भ से ही कभी बन्धित थे ही नहीं।
वेदान्त में साधक “मैं देह नहीं हूँ” पर ध्यान करता है।
तंत्र में साधक अनुभूत करता है, “यह देह शक्ति का देवालय है, प्रत्येक श्वास एक जप है, प्रत्येक स्पर्श एक मंत्र।”
कुण्डलिनी जागृति, मंत्र साधना और शिव-शक्ति उपासना के माध्यम से तंत्र द्वैत की माया को विलीन कर देता है। यह इच्छा का परित्याग नहीं करता—यह उसे शुद्ध करता है। यह इन्द्रियों को दुष्ट नहीं ठहराता—यह उन्हें पवित्र बनाता है।
विज्ञान भैरव तंत्र के शब्दों में :
जहाँ कहीं भी मन जाता है, चाहे बहिर्मुख होकर या अन्तर्मुख होकर, वहीं शिव का अनुभव होता है।
तंत्र का लक्ष्य अद्वैत-चैतन्यता है, जहाँ प्रेम करने वाला, प्रेम की क्रिया और प्रिय—तीनों एक परम आनन्दमय स्थिरता में विलीन हो जाते हैं।
और वही मोक्ष है। किसी दूरस्थ स्वर्ग में नहीं, बल्कि यहीं, आपके जीवन के मध्य में।
तंत्र के विषय में भ्रम
गंगा के तटों पर एक बार एक उन्मत्त पुरुष चलता था—संसार के प्रति नहीं, बल्कि जगन्माता के प्रति प्रेम में उन्मत्त।
वह रोता, काँपता, हँसता और उनके नाम पर अचेत हो जाता। वह पुरुष श्री रामकृष्ण परमहंस था।
एक दिन एक पथिक तांत्रिक—विद्वान और तेजस्वी—ने दक्षिणेश्वर में प्रवेश किया। वह कोई साधारण संन्यासी नहीं थीं; वे भैरवी ब्राह्मणी थीं, तंत्र की विशेषज्ञ और प्राचीन ग्रन्थों में छिपे सूक्ष्म सत्यों की ज्ञाता। जब उन्होंने रामकृष्ण को देखा, तो वे प्रणत हुईं, शिष्टाचारवश नहीं, बल्कि पहचानवश—“यह वही है जो पहले ही वह बन चुका है, जिसे बनने में हम अनेक जन्म लगा देते हैं।”
उन्होंने रामकृष्ण को वामाचार तंत्र की पद्धतियों में दीक्षित किया—वे अनुष्ठान जिनमें मद्य, मांस, और वे प्रतीक प्रयुक्त होते हैं, जो नैतिकता से बँधे मन को भयभीत कर देते हैं। परीक्षा के रूप में एक संध्या उन्होंने उनके आगे मद्य-पात्र रखा—अनुष्ठान में एक पवित्र तत्त्व। उन्होंने रामकृष्ण को स्निग्ध दृष्टि से देखते हुए कहा, “यह भी माँ ही हैं।”
रामकृष्ण ने उसे देखा—न मद्य के रूप में, न प्रलोभन के रूप में, न ही परीक्षा के रूप में। उन्होंने देखा, और आवरण हट गया। उनकी दृष्टि ऊपर उठ गई, श्वास स्थिर हो गया, और वे समाधि में प्रवेश कर गए, एक ही क्षण में जगन्माता में लीन होते हुए।
एक बूँद भी उनके होठों को स्पर्श न कर सकी।
जैसा कि रामकृष्ण बाद में कहा करते थे,
“शुद्ध के लिए सब शुद्ध है, और अशुद्ध के लिए गंगाजल भी विष बन सकता है।”
तंत्र में सम्भोग की धारणा कौल और वामाचार जैसे विशिष्ट सम्प्रदायों से उत्पन्न होती है, जहाँ मैथुन (अनुष्ठानिक ऐक्य) पंचमकारों में से एक है।
जब कोई मार्ग अत्यन्त शक्तिशाली होता है, तो वह दो प्रकार के लोगों को आकर्षित करता है—साधक और शोषक। दुर्भाग्यवश, तंत्र प्रायः बाद वालों का भक्ष्य हुआ है।
आइए कुछ सामान्य भ्रान्त धारणाएँ स्पष्ट करें :
तंत्र केवल शारीरिक अंतरंगता से सम्बंधित है :
तांत्रिक ग्रंथों का १०% से भी कम भाग लैंगिक आचारों से सम्बद्ध है, और वे भी सांकेतिक, पवित्र तथा केवल उन्नत साधकों हेतु निर्धारित हैं। तंत्र का अधिकांश भाग मंत्र, यंत्र पूजा, योग, ध्यान और गुरु के अनुग्रह के बारे में है।
मन्त्रेण देवता सिद्धिः, न योनौ सिद्धिरिष्यते।
(रुद्र यमल तंत्र, अध्याय ११, श्लोक ४५)
अनुवाद :
“देवता की सिद्धि मंत्र द्वारा होती है, न कि योनि के माध्यम से (लैंगिक आचरणों से)।”
तंत्र अनैतिक है :
तंत्र का अपना गहन नीतिशास्त्र है। यह समाज के नियम आरोपित नहीं करता, बल्कि एक गहरा प्रश्न पूछता है—क्या आपका कर्म सत्य से उद्भूत है या अज्ञान से? प्रेम से या अहं से?
जैसा कि तंत्रलोक कहता है :
ईश्वर के प्रति प्रेम रखने वाला एक कसाई भी अभिमानयुक्त ब्राह्मण की अपेक्षा शिव के अधिक समीप है।
तंत्र काला जादू या अन्धकारमय आचार है :
वास्तविक तंत्र अंतःस्थित देवता के आवाहन पर केंद्रित है। यह अहित नहीं करता। यह उपचार करता है। हाँ, कुछ परम्पराएँ (जैसे अघोर) उग्र मार्गों पर चलती हैं—पर सदैव गहन श्रद्धा के साथ, दुष्टभाव से नहीं।
साधना की शांत गुहा में तांत्रिक प्रेतों को नहीं बुलाता—वह स्वयं शक्ति का आवाहन करता है। कपाल भयावह प्रतीत हो सकते हैं, पर वे मृत्यु के नहीं, केवल अहं के अंत के सूचक हैं। सच्चा साधक दूसरों पर अधिकार नहीं चाहता—अपितु अपने ही बन्धन से विमुक्ति चाहता है।
शुद्धां शक्तिं समाश्रित्य, क्रियाः सर्वाः पवित्रिताः।
अनुग्रहार्थम् एताः प्रोक्ताः, न तु दोषाय कर्हिचित्॥
(ब्रह्मयामल तंत्र, अध्याय १३, श्लोक ८)
अनुवाद :
“शक्ति के प्रति शुद्ध भक्तिभाव से की गई सभी तांत्रिक क्रियाएँ पवित्र हो जाती हैं। वे दैवी अनुग्रह हेतु प्रत्यक्ष की गई हैं, अहित के लिए कभी भी नहीं।”
‘अघोरी’ का अति वर्ज्य विषय :
लोकमान्यता के विपरीत, अघोरी सुख या कौतूहल हेतु कामाचार नहीं करते। विरल आचारों में यह शिव और शक्ति के संयोग का प्रतीक होता है और अत्यन्त वैराग्य के साथ किया जाता है। उनका मार्ग कामनाप्रेरित नहीं, मोक्षकेंद्रित है—जो निषिद्धसा प्रतीत होता है, वह वास्तव में अहं और द्वैत से पार जाने का उग्र साधन है।
(यह छवि यह दर्शाती है कि साधक पंचमकार में लिप्त नहीं है, बल्कि उन्हें केवल साधना हेतु उपयुज्य कर रहा है।)
स्रोत : ए.आई. द्वारा निर्मित चित्र
भोगेन मोक्षं गच्छन्ति, त्यागेन नरके स्थिताः।
पञ्चतत्त्वसमाराध्यं शिवमाप्नोति तत्त्ववित्॥
(महनिर्वाण तंत्र, अध्याय ८, श्लोक १४)
अनुवाद :
“जो तत्त्वदर्शी पाँच तत्त्वों द्वारा शिव की आराधना करते हैं, वे अनुभव के द्वारा मोक्ष प्राप्त करते हैं; जो भयवश उनका त्याग करते हैं, वे बन्धन में रहते हैं।”
कोई भी तांत्रिक संभोग कर सकता है :
समुचित मार्गदर्शन के बिना लैंगिक ऊर्जा मुक्त करने की अपेक्षा अधिक विध्वंस कर सकती है। जैसे अग्नि उष्मा भी दे सकती है और दाह भी, वैसे ही मैथुन (तांत्रिक संयोग) केवल उन्हीं के लिए है, जिन्होंने अपने मन को शुद्ध किया है, प्राण को साधा है और अहं को समर्पित किया है।
जैसा कि कुलार्णव तंत्र चेतावनी देता है :
जो शक्ति को मांस के रूप में देखता है वह अन्ध है। जो उन्हें जगन्माता के रूप में देखता है वह मुक्त हो जाता है।
तंत्र साधना में अंतरंगता
तंत्र यह नहीं कहता, “संभोग में लिप्त हो।”
और यह भी नहीं कहता, “इससे भागो।”
वह कहता है, “इसमें जागरूकता लाओ। इसमें प्रेम लाओ। इसमें श्रद्धा लाओ।”
एक ऐसे जगत में जहाँ भौतिक कामना को या तो वस्तु की भाँति बेचा जाता है या पाप की भाँति ठुकराया जाता है, तंत्र एक तृतीय दृष्टि प्रस्तुत करता है—संयोग के द्वार के रूप में, केवल दो देहों के मध्य नहीं, बल्कि शिव और शक्ति के मध्य।
परन्तु यहाँ एक अवरोध है—पवित्र भाव के बिना यह तंत्र नहीं है।
अनुशासन के बिना यह साधना नहीं है। स्थिरता के बिना यह योग नहीं है।
तो विवाह से पूर्व संभोग की आधुनिक दुविधा में यह हमें कहाँ ले जाता है?
जो धर्म और तप में साथ चलते हैं, चाहे विधि द्वारा बन्धित हों या न हों, देवी की दृष्टि में वे पति और पत्नी हैं।
(कुलार्णव तंत्र, ११.७२ )
तंत्र विवाह से पूर्व संयोग की अनुमति देता है, पर केवल तब, जब वह जागरूकता, पवित्रता और ऊर्जात्मक उत्तरदायित्व में प्रतिष्ठित हो। यह विलास हेतु सर्वसुलभ अनुमति नहीं, और न ही समीप्यता का निषेध है; यह एक गहरी पूछ करता है : क्या यह कर्म श्रद्धा से उद्भूत है या चंचलता से? यदि आपका संबंध सत्य, पारस्परिक सहमति और आध्यात्मिक उत्कर्ष में प्रतिष्ठित है—जहाँ आप अपने सहचर को मात्र देह नहीं, बल्कि शक्ति या शिवावतार रूप में देखते हैं—तो वह संयोग उपासना बन जाता है। पर यदि वह अहं, बाधन या अवचेतन तृष्णा से प्रेरित हो, तो वह कर्मबन्धन बन जाता है। तंत्र विधिक अनुबन्ध नहीं माँगता—यह आन्तरिक साम्य माँगता है।
जैसा कि रुद्र यमल तंत्र कहता है :
जो बिना भाव के स्त्री से संयोग करता है वह स्वयं को पुनर्जन्म से बाँध लेता है। जो उसे देवी के रूप में देखता है वह सत्य को प्राप्त करता है।
संभोग केवल शारीरिक नहीं है। यह ऊर्जात्मक रसायन है। प्रत्येक बार जब आप किसी से संयुक्त होते हैं, तो आपका प्राण मिश्रित होता है। आप केवल सुख ही नहीं बल्कि कर्म, अभिघात और संस्कार भी साझा करते हैं। तंत्र सिखाता है कि लैंगिक ऊर्जा पवित्र है, और यदि उसका दुरुपयोग हो तो यह : आपके ओजस (जीवनशक्ति) को क्षीण कर सकती है, भावात्मक भ्रम उत्पन्न कर सकती है और आपको संसार में बँधे रख सकती है। यही कारण है कि किसी भी प्रकार के मैथुन के समीप जाने से पूर्व गुरु-मार्गदर्शन, मंत्र साधना और आत्मनियमन अत्यावश्यक हैं।
“जब देह देवालय बन जाता है,
सहचर देवता बन जाता है,
और कार्य उपहार बन जाता है—
वहीं, उसी क्षण,
तंत्र मोक्ष बन जाता है।”
– त्रिपुर रहस्य से प्रेरित
पर उपकारार्थं सिद्धयः सतां
सन्तों की सिद्धियाँ केवल परोपकार हेतु ही अस्तित्व में रहती हैं।
सच्चे सन्त स्वयं के लिए मार्ग पर नहीं चलते। उनकी सिद्धियाँ करुणा के उपकरण बन जाती हैं।
हिमालयों के एक सिद्ध, ओम स्वामिजी, ने निःस्वार्थ भाव से ‘तंत्र साधना’ ऐप को प्रस्तुत किया है—एक पवित्र प्रवेशद्वार जहाँ आपको आरम्भ करने हेतु किसी भी महाविद्या में दीक्षित होने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी, कुछ भी नष्ट नहीं होता—न प्रामाणिकता, न तीव्रता, न ही पवित्र वातावरण। प्रथम बार, यह प्राचीन मार्ग सत्यनिष्ठ साधकों के लिए उसी रूप में खुला है, जैसा सिद्धों ने अभिप्रेत किया था।
और सर्वाधिक उत्तम यह है—आप अपने ही ‘श्मशान’ में साधना करते हैं, बिना किसी वास्तविक श्मशान में प्रवेश किये।
संदर्भ :
१. रुद्र यामल तंत्र, कुलार्णव तंत्र, ब्रह्मयामल तंत्र — wisdomlib.org
२. महानिर्वाण तंत्र, विज्ञान भैरव तंत्र, त्रिपुर रहस्य — sacred-texts.com
३. भैरवी ब्राह्मणी के निर्देशन में श्री रामकृष्ण की तंत्र साधना – ‘ग्रीन मेसेजेस’ से एक विस्तृत विवरण
४. अघोरी पपरंपरा एवं अभ्यास – विकिपीडिया तथा 'एंशियंट ओरिगिन्स' लेख


