इस लेख में आप पढ़ेंगे —
- आध्यात्मिक परम्परा में तंत्र योग का वास्तविक अर्थ और उद्देश्य
- तंत्र योग कैसे भिन्न है हठयोग और राजयोग जैसे अन्य योग मार्गों से
- तांत्रिक साधना में शरीर, ऊर्जा और चैतन्य की भूमिका
- तंत्र योग भोग नहीं, बल्कि समन्वय का मार्ग क्यों है
- कैसे तंत्र और योग का संगम होता है और आध्यात्मिक उत्क्रान्ति को रूप देता है
- प्रामाणिक तंत्र साधना की यात्रा का आरम्भ कहाँ से करें
योग क्या है?
आज ‘योग’ इस शब्द सुनते ही मन में तुरन्त आसनों और प्राणायाम की छवि उभर आती है। आधुनिक आरोग्य-उद्योगों के जगत में योग को प्रायः केवल शरीर-स्वास्थ्य, मानसिक तनाव-निवारण और विश्रान्ति के एक साधन तक सीमित कर दिया गया है।
भगवान शिव की प्रतिमा — पद्मासन में योगाभ्यास करते हुए
स्रोत : wikipedia
परन्तु वैदिक दर्शन में योग शारीरिक अभ्यास से कई अधिक है। यह मनःशान्ति और अन्तःसंयोग का एक पवित्र अभ्यास है।
संस्कृत शब्द ‘योग’ निष्पन्न है ‘युज्’ धातु से, जिसका अर्थ है जोड़ना, मिलाना अथवा एकीकृत करना। यह जीवात्मा और परमात्मा के मिलन का द्योतक है।
योग का प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद (५.८१.१) में प्राप्त होता है—
“युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः...”
अनुवाद :
बुद्धिमान जन अपने मन और विचारों को एकाग्र करते हैं। वे व्यापक, सर्वज्ञ सविता की वंदना में पवित्र अनुष्ठान करते हुए ब्रह्माण्डीय व्यवस्था की दिशा निर्धारित करते हैं।
अतः योग मन का नियमन है — विचार, ऊर्जा और कार्य को उच्चतर चैतन्य के साथ सामंजस्य में लाने हेतु एक साधन।
आन्तरिक समत्व के रूप में योग : भगवद्गीता का सन्दर्भ
भगवद्गीता (२.४८) में भगवान श्रीकृष्ण योग को समत्व के रूप में परिभाषित करते हैं—
“योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥”
अनुवाद :
हे धनञ्जय (अर्जुन), सिद्धि और असिद्धि की आसक्तियों का त्याग करके अपने कर्तव्य का पालन करो। यही समत्व योग है।
योग के प्रकार : काल में एक यात्रा
योग एक एकीकृत प्रणाली नहीं, अपितु विभिन्न मार्गों का परिवार है। प्राचीन भारतीय शास्त्र योग के कई भिन्न परंतु परस्पर सम्बद्ध रूपों का वर्णन करते हैं, जो प्रत्येक आत्मा को ईश्वर की ओर ले जाने का एक अलग मार्ग प्रदान करते हैं।
मंत्र योग
योग का सबसे प्राचीन रूप, मंत्र योग, पवित्र ध्वनि कंपन (मंत्र) के माध्यम से चैतन्य को उच्चतर करने का साधन है। यह ऋग्वेद और अथर्ववेद में वर्णित है तथा ध्वनि-संवेग द्वारा दिव्य ऊर्जा को आवाहित करने पर केन्द्रित है।
ज्ञान योग
ज्ञान और आत्म-परीक्षण का मार्ग, ज्ञान योग, उपनिषदों से उत्पन्न हुआ है और भगवद्गीता में विस्तृत किया गया है—
“न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते...”
— भगवद्गीता ४.३८
ज्ञान से अधिक शुद्ध करने वाला कुछ भी नहीं है।
यह योग साधक को विवेक द्वारा माया से परे ले जाता है।
कर्म योग
कर्म योग निष्काम कर्म का मार्ग है, जो फल की आसक्ति से रहित होता है।
“ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम...”
— भगवद्गीता ३.३
कुछ लोग ज्ञान मार्ग का अनुसरण करते हैं, अन्य कर्म मार्ग का।
यह हमारे हृदय को शुद्ध करता है और हमें आन्तरिक जागृति हेतु तैयार करता है।
भक्ति योग
भक्ति का योग ईश्वर के प्रति निःशर्त प्रेम पर केन्द्रित है।

स्रोत : ए.आई. द्वारा निर्मित
“ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः...”
जो लोग अविचल भक्ति के साथ सभी कर्मों को मुझमें समर्पित करते हैं, उन्हें मैं जन्म-मरण के सागर से शीघ्र मुक्त कर देता हूँ।
राजयोग
ध्यान योग के नाम से भी प्रसिद्ध, राजयोग पतंजलि के योग सूत्रों में अष्टांग योग के रूप में प्रतिपादित है :
१. यम
२. नियम
३. आसन
४. प्राणायाम
५. प्रत्याहार
६. धारणा
७. ध्यान
८. समाधि
योग के ८ अंग
स्रोत : pinterest
“योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः”
— योगसूत्र १.२
योग मनोवृत्तियों के निरोध का नाम है।
कुण्डलिनी योग
सुषुप्त कुण्डलिनी शक्ति की जागृति पर केन्द्रित, यह योग चक्रों (ऊर्जा केन्द्रों) को सक्रिय करता है और चैतन्य को उच्चतर स्तर पर ले जाता है।
महावतार बाबाजी की छवि — कुण्डलिनी शक्ति का प्रतीक रूप
स्रोत : pinterest
हठयोग
हठयोग १०वीं–१५वीं शताब्दी ईस्वी के बीच विकसित हुआ और इसका मुख्य उद्देश्य है शरीर और प्राण के शुद्धिकरण द्वारा उच्चतर ध्यानावस्था की तैयारी करना।
हठयोगप्रदीपिका जैसे ग्रंथ निम्नलिखित अभ्यासों का वर्णन करते हैं—
आज के योग केंद्र प्रायः हठयोग के आसन ही सिखाते हैं, यद्यपि कुछ केंद्र इसके ऊर्जा-गहन स्वरूप पर भी ध्यान देते हैं।
तंत्र योग
उपर्युक्त सभी योग-रूपों की भांति, जो ईश्वर की ओर मार्ग प्रशस्त करते हैं, तंत्र योग — यद्यपि पश्चिमी देशों में सबसे अधिक भ्रांत समझा जाने वाला योग है — वास्तव में समन्वय का मार्ग है।
यह शरीर, श्वास, मंत्र, अनुष्ठान और कुण्डलिनी जागृति को सम्पूर्ण आध्यात्मिक उत्क्रान्ति की एक प्रणाली में सम्मिलित करता है।
तंत्र योग का उल्लेख अमृतसिद्धि तथा नाथ परंपरा के ग्रंथों में मिलता है, जो १०वीं–१२वीं शताब्दी ईस्वी के हैं।
अन्य योगमार्गों के विपरीत — जो त्याग, ध्यान या भक्ति पर अधिक बल देते हैं — तंत्र योग शरीर और भौतिक जगत को बाधा नहीं, अपितु आध्यात्मिक यात्रा के अनिवार्य अंग मानता है।
इसके अभ्यास शारीरिक जीवनशक्ति और सूक्ष्म ऊर्जा के बीच सामंजस्य स्थापित करने हेतु रचित हैं, जो अन्ततः चैतन्य के विस्तार की ओर ले जाते हैं।
तंत्र योग को कौल योग भी कहा जाता है। तंत्र और योग के सम्मिलन की इस प्रणाली में प्राण (जीवन-शक्ति) और भौतिक शरीर पर आधारित शाश्वत सूत्र निहित है।
यह समन्वय साधक को इन २ शक्तियों के बीच संतुलन स्थापित करके द्वैत-मायाओं से परे उठने और उच्चतर योगात्मक अवस्थाओं तक पहुँचने में सहायक होता है।
योग एवं तंत्र अथवा तंत्र योग?
तंत्र एक आध्यात्मिक विज्ञान है — दिव्य एकत्व की ओर ले जाने वाला पवित्र मार्ग।
‘तंत्र’ शब्द ‘तन्’ (इन्द्रिय अथवा मानसिक विस्तार) और ‘त्र’ (संवर्द्धन अथवा संरक्षण) से बना है।
अतः तंत्र शरीर के माध्यम से चेतना का विस्तार करने की विधि है — भोग के लिए नहीं, बल्कि अतिक्रमण के लिए।
तंत्र योग, जैसा कि पूर्वोक्त है, मन, शरीर और आत्मा की स्थिरता प्राप्त करने का मार्ग है, जो विधियों, प्राणायाम, मंत्र जप तथा कुण्डलिनी जागृति के समन्वय से सिद्ध होता है।
हठयोग के समान इसमें भी आसनों तथा प्राणायाम (श्वास-नियंत्रण) की क्रमबद्ध विधियाँ सम्मिलित होती हैं, किन्तु यह आध्यात्मिक साधना के ऊर्जात्मक एवं क्रियात्मक पक्षों पर अधिक गहन बल देता है।
तंत्र योग का ऊर्जात्मक सार उद्भूत होता है — शक्ति (सृजनात्मक, गतिशील स्त्री-तत्त्व) तथा शिव (संहारक, स्थिर पुरुष-तत्त्व) के आराधन से — अर्थात् ब्रह्माण्ड के गतिशील और स्थिर सिद्धान्तों का संतुलन, या प्रकृति तथा अस्तित्व की द्वैत भावना का साम्य।
ध्यानमग्न शिव-शक्ति
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इस सिद्धान्त में शरीर को ऊर्जा जागृति के उपकरण के रूप में देखा जाता है, जो चार प्रमुख साधनाओं के माध्यम से सम्पन्न होता है —
- आसन – शारीरिक मुद्राएँ
- प्राणायाम – श्वास का नियंत्रण
- मुद्रा – हस्त-मुद्राएँ अथवा ऊर्जाबन्ध
- षट्कर्म – शुद्धीकरण की क्रियाएँ
मुद्राएँ सरल हस्त-चालों से लेकर उन उन्नत संयोजनों तक हो सकती हैं, जिनमें आसन, श्वास और मांसपेशीय बन्धनों का समावेश होता है।
षट्कर्म, जिसे प्रायः क्रिया भी कहा जाता है, ऐसे शुद्धिकरण अभ्यासों का समूह है जो शरीर को निर्मल करके ऊर्जा-मार्गों को प्रशस्त करते हैं।
जो योगी अथवा योगिनियाँ तंत्र योग का अभ्यास करते थे, उन्हीं ने अनेक ऐसे आसनों और प्राणायाम विधियों का रूप निर्माण किया जो आगे चलकर हठयोग की आधारशिला बने।
यह कहना उचित होगा कि तंत्र योग और हठयोग में विशेष अन्तर नहीं है — वे दर्शन और साधना, दोनों ही स्तरों पर, अत्यन्त गहराई से परस्पर गुंथे हुए हैं।
तंत्र योग एवं हठयोग में अंतर
हठयोगप्रदीपिका में नाथ परम्परा के स्वामी स्वात्माराम ने प्राचीन हठयोग सम्बन्धी ज्ञान को संकलित किया, जो अमृतसिद्धि जैसे ग्रन्थों तथा गोरक्षनाथ के उपदेशों से प्रेरित था।
हठयोगप्रदीपिका आगे चलकर हठयोग पर लिखे गए अत्यन्त प्रभावशाली ग्रन्थों में से एक बनी, जिसमें साधना के चार प्रमुख अंगों का निरूपण किया गया है —
- आसन (शारीरिक मुद्राएँ)
- प्राणायाम (श्वास-नियंत्रण)
- मुद्राएँ (बन्ध अथवा हस्त-मुद्राएँ)
- समाधि (ध्यानमग्न अवस्था)
हठयोग का सम्बन्ध राजयोग से भी निकटता से जुड़ा है, जो पतंजलि के योगसूत्रों में वर्णित मुख्य ध्यानमार्ग है। यह सम्बन्ध स्पष्ट करता है कि हठयोग, उन उच्च चेतनास्थितियों की प्राप्ति के लिए एक पूर्व-तैयारी का चरण है, जिनकी ओर राजयोग लक्षित है।
साधना में प्रमुख भेद
तंत्र योग और हठयोग अनेक रूपों से समान हैं, पर उनका उद्देश्य और ज़ोर थोड़ा भिन्न हैं।
तंत्र योग में आसनों का प्रयोग चक्रों, अर्थात् शरीर के ऊर्जा-केन्द्रों, को सक्रिय करने के लिए किया जाता है, जिससे कुण्डलिनी ऊर्जा का प्रवाह जागृत हो। यह अभ्यास सामान्यतः श्वास-साधना, ध्यान तथा योगनिद्रा के साथ संयोजित होता है, और इसका ज़ोर चेतना के विस्तार तथा मन को सीमाओं से मुक्त करने पर होता है।
इसके विपरीत, हठयोग आसनों को अधिक शारीरिक अनुशासन के रूप में देखता है। इसका लक्ष्य आसनों के माध्यम से स्थिरता और शक्ति का विकास करना है, जिससे साधक दीर्घकाल तक प्राणायाम और ध्यान में सहजता से बैठ सके।
इस तैयारी के बिना शरीर अस्थिर या असुविधाजनक हो सकता है, जिससे ध्यान की एकाग्रता बनाए रखना कठिन हो जाता है।
संक्षेप में :
- तंत्र योग अधिक ऊर्जामूलक साधना है, जो विधियों, चक्रों तथा कुण्डलिनी जागृति के साथ कार्य करता है।
- हठयोग अधिक शारीरिक तैयारी पर केन्द्रित है, जो आसन और श्वास के माध्यम से गहन स्थिरता की आधारभूमि निर्मित करता है।
दोनों ही मार्ग ईश्वर तक ले जाने वाले हैं — केवल आरम्भ के स्थान थोड़े भिन्न हैं।
योग और तंत्र — संक्षेप में
मूलतः, चाहे योग साधना हो या तंत्र साधना, दोनों एक ही सत्य की ओर संकेत करते हैं :
शरीर, मन और आत्मा का एकत्व हमें उस पूर्णता की ओर ले जाता है जो हमारे भीतर पहले से विद्यमान है।
चाहे कोई साधक योग साधना के रूप में सरल आसन से आरम्भ करे, अथवा तंत्र साधना में मंत्र से — अन्तिम लक्ष्य एक ही है : संतुलन का विकास, अन्तःशक्ति की जागृति और गहन चेतना के साथ जीवन का अनुभव।
भिन्न मार्ग, एक गन्तव्य
योग, विशेषतः आसनों और अष्टांग मार्ग के रूप में, आज अत्यन्त लोकप्रिय है। इसे अनेक माध्यमों से सीखा जा सकता है — योग कक्षाओं, ऑनलाइन मार्गदर्शन, पुस्तकों अथवा वर्कशॉप्स जैसे।
विपरीत रूप से, तंत्र साधना आरम्भिक साधकों के लिए सहज मार्ग नहीं है। यह गहन समर्पण, दीक्षा और प्रायः गुरु-मार्गदर्शन की अपेक्षा रखता है, क्योंकि इसकी साधनाएँ सूक्ष्म, तीव्र और पवित्र होती हैं।
अपनी साधना यात्रा का आरम्भ करें
तंत्र साधना की शक्ति को वास्तव में जानने और अनुभव करने के लिए आप ‘तंत्र साधना’ ऐप का उपयोग कर सकते हैं — जो हिमालय के सिद्ध ओम स्वामी द्वारा निर्मित एक अद्भुत आध्यात्मिक साधन है।
यह ऐप साधक के लिए पूर्ण गुरु के समान है, जिसके माध्यम से विविध साधनाएँ सुरक्षित और प्रभावी रूप से सम्पन्न की जा सकती हैं। इसके द्वारा आप परमचेतना से दिव्य सम्पर्क का अनुभव कर सकते हैं और ब्रह्माण्डीय संतुलन तथा सामंजस्य के रहस्यों का अनावरण आरम्भ कर सकते हैं।
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