इस लेख में आप पढ़ेंगे:
- श्री यंत्र की शक्ति
- श्री यंत्र का निर्माण — भगवान शिव की जगत को भेट
- श्री चक्र यंत्र की ज्यामिति एवं गणित
- श्री विद्या के साथ श्री यंत्र उपासना की क्रमागत उन्नति
- श्री यंत्र की उपासना — नवावरण पूजा
- श्री यंत्र उपासना के मंत्र
- दशमहाविद्याएँ एवं श्री यंत्र
- ‘तंत्र साधना’ ऐप द्वारा श्री यंत्र की पूजा
सहस्राब्दियों से मानवता की आध्यात्मिक खोज का पथ प्रदर्शित करने वाले पवित्र प्रतीकों के विराट् समूह में, श्री यंत्र से अधिक आदरणीय अथवा गहनतर ज्ञान का मूर्त रूप धारण करने वाला अन्य कोई नहीं है। यह ब्रह्मचेतना और दिव्य स्त्रीशक्ति की सर्वश्रेष्ठ ज्यामितीय अभिव्यक्ति है।
इस जटिल मण्डल में ९ परस्पर गुंथे हुए त्रिकोण मध्यबिन्दु के चारों ओर संयोजित हैं। यह एक साथ ही ब्रह्माण्ड का मानचित्र, मानवीय चेतना का खाका और आध्यात्मिक रूपान्तरण के सामर्थ्यवान साधन के रूप में कार्य करता है।
श्री यंत्र, जिसे श्री चक्र यंत्र भी कहा जाता है, केवल पवित्र ज्यामिति का रूप नहीं है — यह एक जीवित आध्यात्मिक विज्ञान है, जिसमें गणितीय सूक्ष्मता के भीतर सम्पूर्ण दिव्यचेतना का समूह निहित है। यह ९ पवित्र आवरणों में संरचित है और मानवीय चेतना की यात्रा को भौतिक बन्धन से लेकर आध्यात्मिक मुक्ति तक प्रतिबिम्बित करता है।
इसके प्रत्येक स्तर में विशिष्ट देवता, मंत्र और आध्यात्मिक शक्तियाँ स्थित हैं, जिन्हें यथावत् समझने और पूजने पर साधक के जीवन तथा चेतना में गहन रूपान्तरण होता है।
श्री यंत्र की शक्ति

आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य सनातन धर्म के पुनरुत्थान तथा एकीकरण के अपने ध्येय पर यात्रा करते हुए पवित्र भूमि कांचीपुरम पर पहुँचे। वहाँ के मन्दिर में देवी कामाक्षी अत्यन्त उग्र रूप में प्रकटित हुई थीं। उनकी शक्ति इतनी प्रचण्ड रूप से प्रकट हुई कि भक्तों के लिए गर्भगृह में प्रवेश करके उपासना करना अत्यन्त कठिन हो गया। उन तीव्र आध्यात्मिक कम्पनों ने सुगम करुणा की अपेक्षा अभिभूत करने वाली महाशक्ति का वातावरण निर्मित कर दिया।
स्थानीय किंवदन्तियों के अनुसार, कामाक्षी का यह उग्र रूप रात्रियों में मन्दिर से बाहर निकलकर उन लोगों को दण्डित अथवा भस्मीभूत कर देता था, जिन्होंने उनकी क्रोधाग्नि को उद्वेलित किया होता। आदि शंकराचार्य की गहन आध्यात्मिक दृष्टि ने उन्हें यह समझने में समर्थ किया कि यद्यपि देवी की यह उग्र शक्ति दैवी न्याय का वैध रूप है, तथापि भक्तों के कल्याण हेतु इसका संतुलन आवश्यक है।
देवी की शक्ति को घटाने या क्षीण करने का प्रयास करने के स्थान पर शंकराचार्य ने उसके उग्र रूप का संतुलन उनके सौम्य, मातृरूप के साथ साधने का संकल्प किया। उन्होंने मुख्य देवमूर्ति के सम्मुख विशेष रूप से अभिषिक्त श्री चक्र यंत्र की प्रतिष्ठा की। यह श्री चक्र यंत्र गर्भगृह के भीतर बने पात्र-सदृश ढाँचे में स्थापित किया गया, ताकि देवी के प्रकटित स्वरूप के साथ अधिकतम ऊर्जात्मक परस्पर क्रिया सम्भव हो।
श्री यंत्र की ज्यामितीय सूक्ष्मता ने ऐसा नियामक क्षेत्र उत्पन्न किया, जो देवी की तीव्र ऊर्जा को आत्मसात्, संतुलित, और पुनः वितरित कर सके। अब वह ऊर्जा भक्तों को अभिभूत करने के स्थान पर सुगम एवं पोषणकारी बन गयी। पारम्परिक विवरणों के अनुसार, श्री यंत्र की प्रतिष्ठा के पश्चात् देवी का उग्र रूप सौम्य हो गया।
यह रूपान्तरण दमन नहीं, अपितु उसी दैवी शक्ति का अधिक सुगम रूप में मार्गीकरण था। आध्यात्मिक साधक मानते हैं कि श्री यंत्र के ९ परस्पर गुंथे हुए त्रिकोण ऐसा अनुनाद क्षेत्र निर्मित करते हैं, जो किसी भी दैवी ऊर्जा के साथ सामंजस्य स्थापित कर सकता है।
यह प्रतिष्ठा परिपूर्ण संतुलन में शिव (चेतना) और शक्ति (ऊर्जा) के एकत्व का भी प्रतीक बनी। इस ब्रह्मांडीय सामंजस्य ने मन्दिर को ऐसा पवित्र क्षेत्र बना दिया जहाँ दैवी न्याय की उग्रता और दैवी करुणा की मातृत्वता साथ-साथ विद्यमान हो गयीं।
आदि शंकराचार्य द्वारा श्री चक्र यंत्र की प्रतिष्ठा का उल्लेख ललिता त्रिशतिभाष्य में प्राप्त होता है। कांचीपुरम के मन्दिर में आज भी शिलालेख दृष्टिगोचर होते हैं, जो श्री चक्र यंत्र की इस प्रतिष्ठा का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
भारत के महानतम ऋषियों में से एक, रमण महर्षि ने भी मातृमन्दिर (रमणाश्रमम्) के निर्माण के समय श्री यंत्र की अद्भुत शक्ति का आह्वान किया। उन्होंने श्री चक्र यंत्र की प्रतिष्ठा में असाधारण व्यक्तिगत रुचि ली और स्वयमेव उस स्वर्णभूप्रस्थार यंत्र पर पवित्र बीजाक्षर मंत्र अंकित किए, जिसे ग्रेनाइट मेरु के नीचे प्रतिष्ठित होना था।
मन्दिर निर्माण के प्रति उनकी यह सूक्ष्म सावधानी इस गहन समझ को प्रकट करती है कि किस प्रकार पवित्र ज्यामिति आत्मिक जागरण का साधन बन सकती है।
श्री यंत्र का निर्माण — भगवान शिव की जगत को भेट

प्राचीन तांत्रिक परम्परा के अनुसार, भगवान् शिव ने तांत्रिक विद्याओं के आदि गुरु के रूप में मानवता के आध्यात्मिक तथा भौतिक कल्याण हेतु ६४ यंत्रों का सृजन किया और उनके अनुकूल मंत्रों का भी उपदेश किया।
यह पवित्र सृष्टि एक सम्पूर्ण आध्यात्मिक विज्ञान-तंत्र का प्रतिनिधित्व करती है, जो मानवीय जीवन के प्रत्येक आयाम का समाधान प्रस्तुत करने के लिए रचित है। यंत्रों के कुछ उदाहरण हैं—
- गणेश यंत्र (विघ्नों का निवारण)
- काली यंत्र (स्त्रीशक्ति का संवर्धन)
- लक्ष्मी यंत्र (भौतिक सम्पदा)
- धन्वन्तरि यंत्र (आरोग्य)
- नवग्रह यंत्र (ग्रहों का संतुलन)
किन्तु भगवान् शिव ने अपनी सर्वाधिक सामर्थ्यवान सृष्टि — श्री यंत्र — अपनी दिव्य अर्धांगिनी शक्ति के लिए सुरक्षित रखी। इस श्री यंत्र के साथ २ महाशक्तिशाली मंत्र भी सम्बद्ध थे — पंचदशी (१५-अक्षरीय) और षोडशी (१६-अक्षरीय) मंत्र।
अनेक आचार्य यह सूचित करते हैं कि श्री सूक्त में वर्णित बहुपत्र पद्म, मध्यबिन्दु तथा दिव्य ज्यामिति के संकेतों को श्री यंत्र का निरूपण माना जा सकता है। तथापि, श्री यंत्र का रेखाचित्र के रूप में प्रथम स्पष्ट उल्लेख और व्यवस्थित वर्णन तांत्रिक ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं, जैसे ब्रह्माण्ड पुराण, वामकेश्वरिमत तंत्र और ललिता सहस्रनाम।
श्री चक्र यंत्र की ज्यामिति एवं गणित

श्री यंत्र का निर्माण पवित्र गणित के इतिहास की अत्यन्त परिष्कृत उपलब्धियों में से एक का प्रतिनिधित्व करता है। यह ज्यामितीय रूप आध्यात्मिक प्रतीकवाद को गणितीय सूक्ष्मता के साथ सहजता से एकीकृत करता है। इसके मूल में ९ परस्पर गुंथे त्रिकोण स्थित हैं: ४ ऊपर की ओर (पुरुष अथवा शिव ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करते हुए) और ५ नीचे की ओर (स्त्री अथवा शक्ति ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करते हुए)। ये प्रधान त्रिकोण मिलकर ४३ लघु त्रिकोणीय क्षेत्र उत्पन्न करते हैं, जिनमें से प्रत्येक ब्रह्माण्डीय अभिव्यक्ति और मानवीय चैतन्य के विशिष्ट पक्षों का द्योतक है।
संपूर्ण रचना केन्द्रीय बिन्दु से प्रसारित होती है — एक अणु-मात्र बिन्दु जो शुद्ध चैतन्य तथा सम्पूर्ण सृष्टि का मूल स्रोत है। यह केन्द्र-बिन्दु ज्यामितीय उद्गम और आध्यात्मिक गन्तव्य — दोनों के रूप में कार्य करता है, परमतत्त्व के उस विरोधाभास को साकार करते हुए जिसमें वह एक साथ ही लघुतम बिन्दु तथा अनन्त सम्पूर्णता है, जिससे सब उद्भूत होता है और जिसमें सब पुनः लय पाता है। त्रिकोणीय केन्द्र को परिवेष्टित करते हुए २ मंडलाकार पद्म-दलस्थितियाँ हैं। १६ बाह्य दल भौतिक तत्त्वों और इन्द्रियानुभवों का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा ८ आन्तरिक दल सूक्ष्म मानसिक सामर्थ्य और आध्यात्मिक गुणों के प्रतीक हैं। यह पद्म-प्रतीकवाद सार्वभौमिक आध्यात्मिक सिद्धान्त, अर्थात् उत्क्रमण, को प्रकट करता है: जैसे कमल कीचड़ से उभरकर निर्मल प्रकाश में खिलता है, वैसे ही चैतन्य भौतिक बन्धनों से ऊपर उठकर आध्यात्मिक ज्ञानप्रकाश तक पहुँच सकता है।
आधुनिक गणितीय विश्लेषण प्रकट करता है कि श्री यंत्र का निर्माण उन सिद्धान्तों को समाहित करता है जिन्हें पाश्चात्य गणित ने शताब्दियों पश्चात् औपचारिक रूप से स्वीकार किया। स्वर्ण अनुपात / गोल्डन रेशो (लगभग १.६१८) यंत्र की अनुपातगत संरचना में सर्वत्र प्रकट होता है, जो दिव्य अनुपात की चिह्नक सौन्दर्यपरिपूर्ण सामञ्जस्यता उत्पन्न करता है। यही अनुपात प्रकृति के विकास-नियमों को संचालित करता है — शंख-आवरणों से लेकर पुष्प-दलों तक, यह सूचित करते हुए कि यंत्र-निर्माताओं को सार्वभौमिक गणितीय सिद्धान्तों का गहन बोध था।
फिबोनाची सीक्वेंस (०, १, १, २, ३, ५, ८, १३, २१…) त्रिकोणीय उपविभाजनों में प्रकट होता है, जो रेखाओं के परस्पर छेदन से निर्मित होते हैं, और प्रत्येक संख्या अपने २ पूर्ववर्ती अंकों के योग का द्योतक है। यह गणितीय विन्यास, जिसे लिओनार्डो फिबोनाची ने सन् १२०२ में खोजा, स्वाभाविक रूप से देवदार-शङ्खियों, सूर्यमुखी के बीज-विन्यास और आकाशगङ्गा की सर्पिल रचनाओं में प्रकट होता है, यह दर्शाते हुए कि श्री यंत्र के स्रष्टाओं ने गणित को ब्रह्माण्डीय नियमबद्धता की भाषा के रूप में देखा।
फ्रैक्टल पैटर्न यंत्र की पुनरावृत्त ज्यामिति से प्रकट होते हैं, जहाँ समान त्रिकोणीय रूप विभिन्न स्तरों पर बारम्बार उभरते हैं, तथा सीमित परिधि के भीतर अनन्त गहराई और जटिलता का सृजन करते हैं। यह विशेषता आधुनिक केओस थियरी और फ्रैक्टल गणित से साम्य रखती है, यह सूचित करते हुए कि मानव को प्राचीन काल में ही उन गणितीय सिद्धान्तों का बोध था जिन्हें आधुनिक विज्ञान ने हाल ही में औपचारिक रूप प्रदान किया है।
श्री विद्या के साथ श्री यंत्र उपासना की क्रमागत उन्नति

श्री यंत्र की उपासना औपचारिक प्रणालीकरण से पूर्व भिन्न-भिन्न तांत्रिक परम्पराओं में विविध रूपों में विद्यमान थी। इसके प्राचीन संकेत अनेक भैरव तंत्रों, रुद्र तंत्रों और शिव तंत्रों में मिलते हैं, जहाँ विशिष्ट अनुष्ठानिक प्रयोजनों हेतु ज्यामितीय आरेखों का प्रयोग किया जाता था। यह ज्ञान मुख्यतः गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा संप्रेषित होता रहा। किसी सुव्यवस्थित ग्रन्थ-रूप में संहितीकृत नहीं हुआ था।
श्री यंत्र की उपासना का प्रथम महत्त्वपूर्ण औपचारिकीकरण कश्मीर-शैवमत के माध्यम से हुआ, जिसने आगे चलकर श्रीविद्या के विकास हेतु दार्शनिक आधार प्रदान किया।
नवम शताब्दी में वासुगुप्त द्वारा शिव सूत्रों की खोज अद्वैत शैव दर्शन के व्यवस्थित प्रारम्भ का द्योतक बनी। इन सूत्रों ने वह आध्यात्मिक ढाँचा प्रदान किया जिसने आगे चलकर श्री यंत्र उपासना को दिव्य चैतन्य की अनुभूति के साधन के रूप में प्रतिष्ठित किया। स्पन्दकारिका ने ब्रह्माण्डीय स्पन्दन की संकल्पना प्रस्तुत की, जिसमें शक्ति को शिव की सक्रिय, सृजनात्मक ऊर्जा के रूप में निरूपित किया गया। यह दार्शनिक आधार श्री यंत्र को ब्रह्माण्डीय कम्पन और दिव्य ऊर्जा का रूपक समझने में अत्यावश्यक सिद्ध हुआ। महादार्शनिक अभिनवगुप्त ने तंत्रलोक में कश्मीर-शैवमत का व्यापक संश्लेषण किया। उनकी रचना ने यंत्रों को प्रत्यभिज्ञा (दिव्य-स्मरण) के उपकरणों के रूप में समझने हेतु धार्मिक-दार्शनिक ढाँचा प्रदान किया।
इसी काल में, नवम शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने श्रीविद्या साधनाओं को अद्वैत वेदान्त के साथ सफलतापूर्वक एकीकृत किया और अद्वैत का समन्वित रूप प्रस्तुत किया। उनकी सौन्दर्यलहरी ने श्री यंत्र ध्यान के लिए भक्ति और ज्ञान का समन्वित भक्तिपरक तथा दार्शनिक आधार प्रदान किया। उन्होंने भारत के प्रमुख मन्दिरों में श्री चक्रों की विधिवत प्रतिष्ठा की, जिससे ऊर्जा-संतुलित पवित्र स्थलों का एक संजाल निर्मित हुआ। इस व्यावहारिक अनुप्रयोग ने यन्त्र की आध्यात्मिक प्रौद्योगिकी रूप में प्रभावोत्पादकता को सिद्ध किया।
दशम से पञ्चदश शताब्दी तक ऐसे ग्रन्थों का उद्भव हुआ जो श्रीविद्या और श्री यंत्र पूजन के आधारभूत अंग बने। ब्रह्माण्ड पुराण में ललिता सहस्रनाम तथा श्रीविद्या के दार्शनिक और विधिक वर्णनों का विस्तार मिलता है। इसी ग्रन्थ ने श्री यंत्र के नवावरणों से सम्बद्ध १८२ देवताओं की प्रणाली स्थापित की। भावनोपनिषद् ने श्री चक्र के गूढ़ प्रतीकवाद और विधिवत पूजन-पद्धतियों का विवेचन किया, तथा यंत्र को वैदिक साधना के रूप में वैधता प्रदान की। त्रिपुर रहस्य ने श्रीविद्या के अद्वैतात्मक आयामों को प्रतिपादित किया और बाह्य अनुष्ठान की अपेक्षा आन्तरिक साक्षात्कार को प्रमुखता दी। इस काल में श्रीविद्या तथा श्री यंत्र पूजन का ३ मुख्य परम्पराओं में औपचारिकीकरण हुआ—
- दक्षिणामूर्ति-सम्प्रदाय: समयाचार (आन्तरिक पूजन) पर केन्द्रित, जिसमें मानसिक ध्यान और होम सम्मिलित थे।
- हयग्रीव-सम्प्रदाय: दक्षिणाचार (वैदिक परम्परागत अनुष्ठान) पर आधारित, जिसमें सुव्यवस्थित बाह्य पूजन होता था।
- आनन्दभैरव-सम्प्रदाय: कौलाचार/वामाचार पद्धतियों पर केन्द्रित, जिसमें गूढ़ तांत्रिक साधनाएँ सम्मिलित थीं।
श्रीविद्या के उस औपचारिकीकरण का चरम रूप, जो आज तक मान्य है, भास्करराय मखिन (१६९०–१७८५) ने प्रस्तुत किया। उन्होंने ललिता सहस्रनाम पर सौभाग्यभास्कर नामक भाष्य लिखकर इसे परिभाषित रूप प्रदान किया। इसमें उन्होंने सुव्यवस्थित रूप से निम्न का निरूपण किया—
- श्री यंत्र में १०८ देवताओं की सटीक व्यवस्था
- यंत्र पूजन और चैतन्य-परिवर्तन के मध्य का सम्बन्ध
- विविध श्रीविद्या परम्पराओं का एकीकृत दर्शन
भास्करराय ने उन अनेक श्रीविद्या परम्पराओं को एक सूत्र में पिरो दिया जिन्हें प्रायः परस्पर विरोधी समझा जाता था। उनके पाण्डित्य ने इन दृष्टिकोणों की अन्तर्निहित एकता का प्रदर्शन किया। साथ ही उन्होंने परम्परा की गहनता को बनाए रखते हुए साधकों के लिए स्पष्ट व्यावहारिक मार्गदर्शन प्रस्तुत किया, जिससे उच्च साधनाएँ भी निष्ठावान साधकों के लिए सुलभ हो सकीं। अन्ततः भास्करराय ने वैदिक परम्परा और तांत्रिक साधना का संगम करके उनकी मूलभूत संगति को सिद्ध किया।
श्री यंत्र की उपासना — नवावरण पूजा

नवावरण पूजा, जो श्री यंत्र के ९ आवरणों की क्रमबद्ध उपासना का प्रतिनिधित्व करती है, श्रीविद्या की अत्यन्त परिष्कृत अनुष्ठान-पद्धतियों में से एक मानी जाती है। यह उपासना बाह्यतम चतुर्भुज से आरम्भ होकर प्रत्येक क्रमिक मंडल को पार करती हुई अन्तःस्थित बिन्दु तक पहुँचती है, जिसमें साधक भौतिक चेतना से दिव्य चैतन्य तक की प्रतीकात्मक यात्रा करता है। प्रत्येक आवरण विशिष्ट मंत्रों, ध्यान-रूपक कल्पनाओं तथा अर्पणों से सम्बद्ध है, जो क्रमशः साधक के आध्यात्मिक सामर्थ्यों को परिष्कृत करते जाते हैं।
यंत्र पूजन के साथ जुड़ी परम्परागत मंत्र साधनाएँ साधकों के अनुसार "जागृत ध्वनि" को सक्रिय करती हैं — ऐसे स्पन्दनात्मक प्रतिरूप, जो सीधे चैतन्य और ऊर्जा को प्रभावित करते हैं। इन मंत्रों में सर्वाधिक प्रभावशाली पंचदशी और षोडशी हैं, जिन्हें परम्परानुसार केवल विधिवत् दीक्षा द्वारा ही प्रदान किया जाता है, ताकि साधक को मात्र अक्षरों का ही नहीं अपितु वह आध्यात्मिक संचार भी प्राप्त हो, जो उनकी रूपान्तरणकारी शक्ति को जागृत करता है।
प्रथम आवरण : भूपुर – पृथ्वी का आधार (त्रिलोक्य मोहन चक्र)
श्री यंत्र की बाह्यतम सीमा ३ क्रमबद्ध चतुर्भुज रेखाओं से निर्मित होती है, जिन्हें भूपुर (पृथ्वी प्रसारण) कहा जाता है। यही त्रिलोक्य मोहन चक्र है — “त्रिलोकों को मोहने वाला।” यह आधारभूत परिधि साधक की पवित्र क्षेत्र में प्रथम प्रविष्टि का प्रतिनिधित्व करती है और अस्तित्व के भौतिक क्षेत्र को नियंत्रित करती है।
दिव्य निवासी : इस आवरण में २८ शक्तिशाली देवियाँ स्थित हैं, जो ३ पृथक् पंक्तियों में व्यवस्थित हैं। बाह्य प्राकार में १० सिद्धि देवियाँ प्रतिष्ठित हैं।
अणिमा सिध्यम्बा | अणु आकार धारण करने की शक्ति |
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लघिमा सिध्यम्बा | अतीव हल्केपन की शक्ति |
महिमा सिध्यम्बा | अनन्त विस्तार की शक्ति |
ईशित्व सिध्यम्बा | दैवीय आधिपत्य |
वशित्व सिध्यम्बा | तत्त्वों पर पूर्ण नियन्त्रण |
प्राकाम्य सिध्यम्बा | कामनाओं की पूर्ति |
भुक्ति सिध्यम्बा | समस्त सुखों का आस्वादन |
इच्छा सिध्यम्बा | परम संकल्प-शक्ति |
प्राप्ति सिध्यम्बा | किसी भी इच्छित वस्तु की प्राप्ति |
सर्वकाम सिध्यम्बा | समस्त अभिलाषाओं की पूर्ति |
मध्य भाग में ८ मातृका देवियाँ स्थित हैं, जो भावनात्मक रूपान्तरण की अधिष्ठात्री हैं — ब्राह्मी (आकुल आकांक्षा), माहेश्वरी (उग्र क्रोध), कौमारी (लोभ), वैष्णवी (धर्मनिष्ठा), वाराही (हठ), माहेन्द्री (अहंकार), चामुण्डा (विनाशकारी भावनाएँ) तथा महालक्ष्मी (समृद्धि)।
ब्राह्मी मातृका | आवेशपूर्ण लालसा का संचालन करती हैं |
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माहेश्वरी मातृका | हिंसक क्रोध पर नियंत्रण करती हैं |
कौमारी मातृका | लोभ का नियमन करती हैं |
वैष्णवी मातृका | धार्मिकता का नियमन करती हैं |
वाराही मातृका | हठ का रूपान्तरण करती हैं |
माहेन्द्री मातृका | अहंकार पर नियंत्रण करती हैं |
चामुंडा मातृका | नकारात्मक भावनाओं को नष्ट करती हैं |
महालक्ष्मी मातृका | विपुलता प्रदान करती हैं |
अन्तः प्राकार में लाल वर्ण की १० मुद्रा देवियाँ स्थित हैं, जो पवित्र हस्तमुद्राओं एवं आध्यात्मिक सिद्धियों की अधिष्ठात्री हैं।
सर्वसंक्षोभिणी देवी | सार्वभौमिक आंदोलनकर्ता |
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सर्वविद्राविनी देवी | सार्वभौमिक प्रकीर्णक |
सर्वाकर्षिणी देवी | सार्वभौमिक आकर्षक |
सर्ववशंकरी देवी | सार्वभौमिक दमनकर्त्री |
सर्वोन्मादिनी देवी | सार्वभौमिक मदोन्मादक |
सर्वमहांकुशा देवी | सार्वभौमिक महा अंकुश |
सर्वखेचरी देवी | सार्वभौमिक आकाशचारी |
सर्वबीजा देवी | सार्वभौमिक बीज |
सर्वयोनि देवी | सार्वभौमिक स्रोत |
सर्वत्रिखंडा देवी | सार्वभौमिक त्रिभागी |
अधिष्ठाता चैतन्य : त्रिपुरा इस क्षेत्र का शासन करती हैं - तीनों लोकों पर दैवी शक्ति की मूर्त स्वरूपा होकर, जबकि प्रकट योगिनी (साक्षात् योगिनी) शासक आध्यात्मिक मार्गदर्शिका के रूप में सेवारत होती हैं।
द्वितीय आवरण : षोडश-दल-पद्म (सर्वाशापरिपूरक चक्र)
द्वितीय आवरण एक भव्य षोडश-दल कमल के रूप में प्रकट होता है, जिसे सर्वाशापरिपूरक चक्र कहा जाता है — अर्थात् ‘समस्त इच्छाओं की परिपूर्ति करने वाला।’ यह क्षेत्र आध्यात्मिक प्रगति के लिए आवश्यक वैध अभिलाषाओं की क्रमबद्ध पूर्ति का शासन करता है।
१६ नित्य कलाएँ : प्रत्येक दल में एक-एक नित्य देवी स्थित हैं, जिन्हें आकर्षण देवियाँ भी कहा जाता है। ये रक्तवर्णा देवियाँ प्रत्येक पाश, अंकुश एवं अमृतकलश धारण करती हैं और अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं। ये १६ संस्कृत स्वराक्षरों से सम्बद्ध हैं और इच्छाओं की पूर्ति के विशिष्ट आयामों का अधिपत्य करती हैं।
कामाकर्षिणी शक्ति | कामनाओं को आकर्षित करती हैं |
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बुद्ध्याकर्षिणी शक्ति | बुद्धि को आकर्षित करती हैं |
अहंकाराकर्षिणी शक्ति | अहंकार को आकर्षित करती हैं |
शब्दाकर्षिणी शक्ति | ध्वनि को आकर्षित करती हैं |
स्पर्शाकर्षिणी शक्ति | स्पर्श को आकर्षित करती हैं |
रूपाकर्षिणी शक्ति | रूप/दृष्टि को आकर्षित करती हैं |
रसाकर्षिणी शक्ति | रस को आकर्षित करती हैं |
गंधाकर्षिणी शक्ति | गंध को आकर्षित करती हैं |
चित्ताकर्षिणी शक्ति | चित्त को आकर्षित करती हैं |
धैर्याकर्षिणी शक्ति | धैर्य को आकर्षित करती हैं |
स्मृत्याकर्षिणी शक्ति | स्मृति को आकर्षित करती हैं |
नामाकर्षिणी शक्ति | नाम/अस्मिता को आकर्षित करती हैं |
बीजाकर्षिणी शक्ति | बीज संभाव्यता को आकर्षित करती हैं |
आत्माकर्षिणी शक्ति | आत्मा को आकर्षित करती हैं |
अमृताकर्षिणी शक्ति | अमृत को आकर्षित करती हैं |
शरीराकर्षिणी शक्ति | शरीर को आकर्षित करती हैं |
अधिष्ठाता चैतन्य : त्रिपुरेशी (त्रिपुर की सम्राज्ञी) इस क्षेत्र का शासन करती हैं, जो भव्य आभूषणों से अलंकृत रूप में पुस्तक और जपमाला धारण किए हुए चित्रित होती हैं। गुप्त योगिनी शासक मार्गदर्शिका के रूप में स्थित हैं, जो गुप्त आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतिनिधित्व करती हैं।
तृतीय आवरण : अष्ट-दल-पद्म (सर्वसङ्क्षोभन चक्र)
तृतीय आवरण एक अष्ट-दल कमल का रूप लेता है, जिसे सर्वसङ्क्षोभन चक्र कहा जाता है — अर्थात् 'समस्त को उद्दीप्त करने वाला।' यह क्षेत्र सूक्ष्म मानसिक आनन्द का अधिपति है, जो शारीरिक आसक्तियों से परे होता है और इच्छाओं के परिष्कार को आध्यात्मिक अभिलाषा में रूपान्तरित करता है।
८ अनंग देवियाँ : प्रत्येक दल में बन्धुका-पुष्पवर्णा देवियाँ स्थित हैं, जो अनंग (देह-रहित कामदेव) के आठ रूपों का प्रतिनिधित्व करती हैं और मानसिक आनन्द का शासन करती हैं।
अनंगकुसुमा शक्ति | कामदेव की पुष्प-शक्ति |
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अनंगमेखला शक्ति | कामदेव की मेखला-शक्ति |
अनंगमदना शक्ति | कामदेव की मादक-शक्ति |
अनंगमदनातुरा शक्ति | कामदेव की परम मादक-शक्ति |
अनंगरेखा शक्ति | कामदेव की रेखा-शक्ति |
अनंगवेगिनी शक्ति | कामदेव की वेग-शक्ति |
अनंगांकुशा शक्ति | कामदेव की अंकुश-शक्ति |
अनंगमालिनी शक्ति | कामदेव की माला-शक्ति |
अधिष्ठाता चैतन्य : त्रिपुर सुंदरी (त्रिपुर की सुंदर देवी) यहाँ अधिष्ठात्री हैं, जो प्रेम-मद-मत्त आनन्द में लीन, दैवी परमानन्द से पूर्ण नेत्रों सहित चित्रित होती हैं। गुप्ततारा योगिनी मार्गदर्शिका के रूप में स्थित होती हैं।
चतुर्थ आवरण : चतुर्दश त्रिकोण (सर्वसौभाग्यदायक चक्र)
चतुर्थ आवरण चतुर्दश त्रिकोणों से निर्मित है, जो एक जटिल ज्यामितीय रचना में व्यवस्थित हैं। इसे सर्वसौभाग्यदायक चक्र कहा जाता है — अर्थात् 'समस्त सौभाग्य प्रदान करने वाला।' यह क्षेत्र मानवी शरीर की चतुर्दश प्रधान नाड़ियों तथा उनसे सम्बद्ध दैवी शक्तियों का शासन करता है।
१४ सौभाग्य देवियाँ : ये देवियाँ मूलभूत चैतन्य शक्तियों तथा प्राणशक्ति के वितरण की अधिष्ठात्री हैं।
सर्वसंक्षोभिणी देवी | वे जो समस्त को उद्दीप्त करती हैं |
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सर्वविद्राविनी देवी | वे जो समस्त को प्रकीर्ण करती हैं |
सर्वाकर्षिणी देवी | वे जो समस्त को आकर्षित करती हैं |
सर्वह्लादिनी देवी | वे जो समस्त को आनन्दित करती हैं |
सर्वसम्मोहिनी देवी | वे जो समस्त को मोहित करती हैं |
सर्वस्तंभिनी देवी | वे जो समस्त को स्तब्ध करती हैं |
सर्वजृंभिणी देवी | वे जो समस्त को विस्तारित करती हैं |
सर्ववशंकरी देवी | वे जो समस्त को वश में करती हैं |
सर्वरंजनी देवी | वे जो समस्त को प्रसन्न करती हैं |
सर्वोन्मादिनी देवी | वे जो समस्त को मदमत्त करती हैं |
सर्वार्थसाधिका देवी | वे जो समस्त कार्य सिद्ध करती हैं |
सर्वसंपत्तिपूरिणी देवी | वे जो समस्त को संपत्ति से परिपूर्ण करती हैं |
सर्वमंत्रमयी देवी | वे जो समस्त मंत्रों की मूर्त स्वरूपा बनती हैं |
सर्वद्वंद्वक्षयंकरी देवी | वे जो समस्त द्वंद्वों का विनाश हैं |
पवित्र श्वास-वितरण : यह आवरण विशेष रूप से श्वास-वितरण प्रणाली से सम्बन्धित है, जहाँ २१,६०० दैनिक श्वासों का सातों चक्रों में निश्चित कालान्तरों के अनुसार वितरण होता है। नाभि-बिन्दु सम्पूर्ण प्राण-प्रवाह के वितरण-केंद्र के रूप में कार्य करता है।
अधिष्ठाता चैतन्य : त्रिपुर वासिनी, सम्प्रदाय योगिनी सहित।
पंचम आवरण : बहिर्दशर – बाह्य १० त्रिकोण (सर्वार्थसाधक चक्र)
पंचम आवरण में बाह्य १० त्रिकोण सम्मिलित हैं, जो सर्वार्थसाधक चक्र का निर्माण करते हैं — अर्थात् 'समस्त कार्यों को सिद्ध करने वाला।' यह क्षेत्र शरीर में क्रियाशील १० प्राणों तथा उनसे सम्बद्ध दैवी अभिव्यक्तियों का शासन करता है।
१० प्राण देवियाँ : ये देवियाँ जपापुष्प के समान कान्तियुक्त हैं और शरीर की क्रियाशीलता हेतु आवश्यक १० प्राणों का अधिपत्य करती हैं।
सर्वसिद्धिप्रदा देवी | प्राण (श्वसन) का अधिपत्य करती हैं |
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सर्वसंपत्प्रदा देवी | अपान (विसर्जन) का अधिपत्य करती हैं |
सर्वप्रियंकरी देवी | व्यान (संचरण) का अधिपत्य करती हैं |
सर्वमंगलकारिणी देवी | उदान (वाक्/स्वर) का अधिपत्य करती हैं |
सर्वकामप्रदा देवी | समान (पाचन) का अधिपत्य करती हैं |
सर्वदुःखविमोचनी देवी | नाग (डकार) का अधिपत्य करती हैं |
सर्वमृत्युप्रशमनी देवी | कूर्म (नेत्रपटल-संचलन) का अधिपत्य करती हैं |
सर्वविघ्ननिवारिणी देवी | क्रीकर (छींक) का अधिपत्य करती हैं |
सर्वज्वरविनाशिनी देवी | देवदत्त (जम्भाई) का अधिपत्य करती हैं |
सर्वरोगनिवारिणी देवी | धनंजय (अन्त्य प्राण-शक्ति) का अधिपत्य करती हैं |
अधिष्ठाता चैतन्य : त्रिपुर श्री, कुलोत्तीर्ण योगिनी सहित।
षष्ठ आवरण : अन्तर्दशर – आन्तरिक १० त्रिकोण (सर्वरक्षाकार चक्र)
षष्ठ आवरण आन्तरिक १० त्रिकोणों से निर्मित है, जिन्हें सर्वरक्षाकार चक्र कहा जाता है — अर्थात् 'समस्त का रक्षण करने वाला।' यह क्षेत्र शरीर के आन्तरिक दश अग्नियों का अधिपति है और उन्नत आन्तरिक साक्षात्कार की आरम्भिक अवस्था का सूचक है।
१० रक्षकाग्नि देवियाँ : ये देवियाँ उदित सहस्र सूर्यों के समान दीप्तिमान होती हैं और शारीरिक तथा आध्यात्मिक रूपान्तरण हेतु आवश्यक १० पाचनाग्नियों का अधिपत्य करती हैं।
सर्वज्ञ देवी - रेचक अग्नि | सर्वज्ञानी देवी |
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सर्वशक्ति देवी - पाचक अग्नि | सर्वशक्तिशाली देवी |
सर्वैश्वर्यप्रदायिनी देवी - शोषक अग्नि | सर्व संपत्ति की प्रदाता |
सर्वज्ञानमयी देवी - दहक अग्नि | समस्त ज्ञान की मूर्त स्वरूपा |
सर्वव्याधिविनाशिनी देवी - प्लवक अग्नि | समस्त रोगों की नाशिनी |
सर्वाधारस्वरूपा देवी - क्षारक अग्नि | समस्त का आधार |
सर्वपापहरा देवी - उद्धारक अग्नि | सर्व पापों की नाशिनी |
सर्वानंदमयी देवी - क्षोभक अग्नि | सर्व आनंद की मूर्त स्वरूपा |
सर्वरक्षास्वरूपिणी देवी - ज्रम्भक अग्नि | रक्षक स्वरूपा |
सर्वेप्सितफलप्रदा देवी - मोहक अग्नि | इच्छित फलों की प्रदताता |
अधिष्ठाता चैतन्य : त्रिपुर मालिनी, निगर्भ योगिनी सहित।
सप्तम आवरण : अष्टकोण – ८ त्रिकोण (सर्वरोगहर चक्र)
सप्तम आवरण अष्टकोणीय रूप लेता है, जिसे सर्वरोगहर चक्र कहा जाता है — अर्थात् 'समस्त रोगों का नाश करने वाला।' यह क्षेत्र अस्तित्व की ८ मूलभूत विरोधाभास शक्तियों तथा संस्कृत वर्णमालाओं के समूहों का अधिपत्य करने वाली ८ वासिनी देवियों का शासन करता है।
८ वासिनी देवियाँ : ये देवियाँ दाडिम-पुष्पवर्णा हैं। प्रत्येक के हाथ में ५ बाण और १ धनुष होता है, जो इन्द्रियों के पंचक पर उनके आधिपत्य का प्रतीक है। वे संस्कृत वर्णमालाओं के ८ समूहों और मूलभूत द्वन्द्वों का अधिपत्य करती हैं।
वशिनी वाग्देवी | सम्मोहक वाणी की देवी (क-वर्ग अक्षर) |
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कामेश्वरी वाग्देवी | काम्य वाणी की देवी (च-वर्ग अक्षर) |
मोदिनी वाग्देवी | रमणीय वाणी की देवी (ट-वर्ग अक्षर) |
विमला वाग्देवी | पद्मवाणी की देवी (त-वर्ग अक्षर) |
अरुणा वाग्देवी | उषःकाल वाणी की देवी (प-वर्ग अक्षर) |
जयिनी वाग्देवी | विजयी वाणी की देवी (य-वर्ग अक्षर) |
सर्वेश्वरी वाग्देवी | परम वाणी की देवी (श-वर्ग अक्षर) |
कौलिनी वाग्देवी | रेशमी वाणी की देवी (क्ष-अक्षर) |
अधिष्ठाता चैतन्य : त्रिपुर सिद्धा, रहस्य योगिनी सहित।
अष्टम आवरण : त्रिकोण – मूल त्रिकोण (सर्वसिद्धिप्रद चक्र)
अष्टम आवरण उस अन्तःस्थ त्रिकोण से निर्मित है, जिसे सर्वसिद्धिप्रद चक्र कहा जाता है — ‘समस्त सिद्धियों का प्रदाता।’ यह मूल त्रिकोण, जो सभी रेखाओं के संगम से स्वतंत्र है, कामकला का प्रतिनिधित्व करता है — वह आद्य सृजनशक्ति जो निराकार चैतन्य और साकार सृष्टि के मध्य सेतु का कार्य करती है।
परम देवियों की त्रयी : इस त्रिकोण में दैवी चैतन्य की ३ अत्यन्त मौलिक अभिव्यक्तियाँ प्रतिष्ठित हैं।
कामेश्वरी (रूद्र शक्ति) | श्वेत कपूर के समान प्रकट होती हैं, मोती और स्फटिक से अलंकृत, हाथों में पुस्तक और जपमाला धारण की हुई, वरद तथा अभय मुद्राओं का प्रदर्शन करती हुई। वे चन्द्र-तत्त्व (सृजन पक्ष) की अधिष्ठात्री हैं, पश्यन्ती-वाणी (दर्शनीय वाणी) की स्वरूपा हैं, तथा इच्छा-शक्ति (संकल्प-बल) का प्रतिनिधित्व करती हैं। |
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वज्रेशी (विष्णु शक्ति) | कुमकुम चूर्ण के समान उज्ज्वल लाल आभा में प्रकट होती हैं, पुष्पों और रत्नों से अलंकृत, हाथों में इक्षु -धनुष तथा ५ पुष्प-बाण धारण की हुई। वे सूर्य-तत्त्व (पालन पक्ष) की अधिष्ठात्री हैं, मध्यमा-वाणी की स्वरूपा हैं, तथा ज्ञान-शक्ति (बोध-बल) का प्रतिनिधित्व करती हैं। |
भगमालिनी (ब्रह्मा शक्ति) | वे दिव्य सृजन-शक्ति का स्वरूप धारण की हुई, अग्नि समान स्वर्णमय तेज से दीप्तिमान प्रकट होती हैं। वे अग्नि-तत्त्व (संहार पक्ष) की अधिष्ठात्री हैं, वैखरी-वाणी (उच्चारित वाणी) की स्वरूपा हैं, तथा क्रिया-शक्ति (कर्म-बल) का प्रतिनिधित्व करती हैं। |
अधिपति चैतन्य : त्रिपुराम्बा (सम्पत्प्रदा भैरवी), अति रहस्य योगिनी सहित।
नवम आवरण : सर्वानन्दमय चक्र – बिन्दु
नवम और अन्तिम आवरण पूर्णतया आवरण की संकल्पना का अतिक्रमण करता है। यह वह निराकार केन्द्र-बिन्दु है जिसे सर्वानन्दमय चक्र कहा जाता है। यह आध्यात्मिक साधना का परम गन्तव्य और सम्पूर्ण प्रकट जगत् का मूल स्रोत है।
परम उपस्थिति : यहाँ विराजमान हैं उनकी अतिशय दिव्य महिमा, ललिता महेश्वरी महात्रिपुरसुंदरी, जिन्हें राजराजेश्वरी (सम्राटों की साम्राज्ञी) भी कहा जाता है। वे स्वयं ब्रह्म की साकार अभिव्यक्ति हैं — सर्वगुणातीत होकर भी समस्त गुणों की अधिष्ठात्री तथा शिव (शुद्ध चैतन्य) एवं शक्ति (दिव्य ऊर्जा) के शाश्वत ऐक्य की पूर्ण सामन्जस्यरूपिणी।
अध्यात्मिक महत्त्व : बिन्दु एकसाथ अनेक विरोधाभासों को धारित करता है — लघुतम बिन्दु जिसमें अनन्त आकाश निहित हैं, मौन जिसमें समस्त नाद स्थित हैं, निश्चलता जिसमें सम्पूर्ण गति विद्यमान है। यह सर्वानन्दमय चैतन्य को स्वस्वरूप में प्रतिष्ठित करता है — वही गणितीय और रहस्यमय उद्गमबिन्दु जिससे सम्पूर्ण सृष्टि उद्भूत होती है और जिसमें पुनः विलीन होती है।
परम अनुभूति : सिद्ध साधक बिन्दु की प्राप्ति को बिन्दुविसर्ग का अनुभव कहते हैं — यह प्रत्यक्ष अनुभूति कि व्यक्तिगत चैतन्य और विश्वचैतन्य स्वभावतः एक ही हैं। यही श्री यंत्र साधना की चरम परिणति है: साधक-यंत्र-साधना त्रिक का विलय होकर शुद्ध, अविभक्त चैतन्य में अवस्थान।
श्री यंत्र उपासना के मंत्र

श्रीविद्या और श्री यंत्र उपासना की गहन परम्परा में मन्त्र दिव्य उपस्थिति को जागृत, ऊर्जित और आवाहित करने वाले पवित्र नाद-वाहन माने जाते हैं। इस साधना के केन्द्र में ६ प्रधान मंत्र प्रतिष्ठित हैं — बाला मंत्र, पंचदशी मंत्र, षोडशी मंत्र, श्रीदेवी खड्गमाला स्तोत्र, ललिता सहस्रनाम और ललिता त्रिशती — जो प्रत्येक अपने विशिष्ट एवं परस्पर सम्बद्ध स्वरूप में आध्यात्मिक रूपान्तरण एवं दिव्य सान्निध्य का सेतु निर्माण करते हैं।
बाला मंत्र
बाला मंत्र श्रीविद्या साधना का मूल प्रवेशद्वार है, जिसे इस गहन आध्यात्मिक तंत्र का 'बाल्यावस्था' चरण माना जाता है। यह मंत्र श्री बाला त्रिपुर सुंदरी का आह्वान करता है, जो महादेवी की बालस्वरूपा हैं और अनन्त ऊर्जा तथा चैतन्य की मूर्तिमती स्वरूपिणी हैं।
इस मंत्र में वाग्भव बीज सम्मिलित है, जिसमें समस्त ४ वेद तथा उनके साररूप महावाक्य निहित हैं, जो आध्यात्मिक ज्ञान की आधारशिला का प्रतीक हैं। इसमें कामराज बीज भी है, जिसमें सम्पूर्ण ३६ विश्व-तत्त्व अन्तर्भूत हैं। यह चैतन्य और सृष्टि के बीच सृजनात्मक सेतु का प्रतीक है। अन्ततः इसमें एक ऐसा बीज भी सम्मिलित है जो संरक्षण और परिपूर्णता प्रदान करता है तथा मंत्र की रूपान्तरकारी शक्ति को संहित करता है। परम्परागत ग्रन्थ इस मंत्र का वर्णन इस रूप में करते हैं कि यह साधक में उसकी अनन्त ऊर्जा का बोध जगाता है और उसे उसकी असीम सम्भावनाओं के प्रति सचेत करता है।
पंचदशी मंत्र
पंचदशी मंत्र परम १५-अक्षरीय आह्वान है, जो त्रिपुर सुंदरी देवी का प्रतिनिधित्व करता है और श्रीविद्या तत्त्वदर्शन की पूर्ण सारभूता अभिव्यक्ति है। इस रहस्यमयी सूत्र में दिव्य स्त्रीचैतन्य के मूल तत्त्व निहित हैं, जो ३ पवित्र खण्डों में विभक्त हैं, जिन्हें कूट (शिखर) कहा जाता है।
वाग्भव कूट ज्ञान, वाणी और सृष्टि-शक्ति का प्रतीक है, जो ब्रह्म-शक्ति से सम्बन्धित है। कामराज कूट इच्छा, संकल्प और पालनशक्ति का धारक है, जो विष्णु-शक्ति का प्रतिनिधि है। शक्ति कूट क्रिया, रूपान्तर और संहारशक्ति का द्योतक है, जो रुद्र-शक्ति से सम्बद्ध है। ये तीनों कूट मिलकर अभिव्यक्ति की त्रिमूर्ति — ज्ञान, इच्छा और क्रिया — का सम्पूर्ण स्वरूप निर्मित करते हैं।
प्रत्येक अक्षर एक बीज-नाद के रूप में कार्य करता है, जो बाह्य अर्थ से परे दिव्य कम्पन से ओतप्रोत है और गहनतम स्तर पर शिव-शक्ति ऐक्य का प्रतीक है। पंचदशी को सिद्ध मंत्र माना गया है, जिसमें स्वयंप्रभा शक्ति निहित है, यद्यपि दीक्षा से इसकी प्रभावशक्ति अत्यधिक संवर्धित होती है।
षोडशी मंत्र
षोडशी मंत्र हिन्दू परम्परा का सर्वाधिक गोपनीय और शक्तिशाली षोडशाक्षरीय आह्वान है, जो पंचदशी को अतिरिक्त रूपान्तरिक तत्त्वों के द्वारा विस्तारित करता है।
इसमें श्री बीज की विशेष संवृद्धि पंचदशी के पन्द्रहाक्षर को परमशक्तिमान षोडशी में रूपान्तरित करती है, जो विशेषतः लक्ष्मी देवी की मंगलमयी सम्पन्नता और ऐश्वर्य का आह्वान करती है। यह बीज सकारात्मक दृष्टिकोण, श्रद्धा, भक्ति, प्रेम और अन्ततः परमसमर्पण को प्रोत्साहित करता है, जो सीधा मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।
परम्परागत ग्रन्थ इस मंत्र की विलक्षण गोपनीयता पर बल देते हुए उद्घोषणा करते हैं :
राज्यं देयं शिरो देयं न देयं श्रीषोडशाक्षरी
— अर्थात राज्य भी दान कर दें, मस्तक भी दान कर दें, किन्तु श्री षोडशाक्षरी मंत्र कभी प्रत्यक्ष न करें।
इस मंत्र की शक्ति समस्त ६४ अन्य मंत्रों के सामर्थ्य के समतुल्य मानी जाती है, जिससे यह आध्यात्मिक मुक्ति हेतु परम नाद-सूत्र स्थापित होता है।
श्री देवी खड्गमाला स्तोत्र
श्रीदेवी खड्गमाला स्तोत्र 'खड्गमाला' प्रार्थना के रूप में प्रतिष्ठित है, जिसमें श्री यंत्र के ९ आवरणों में स्थित समस्त १०८ देवताओं का क्रमबद्ध आह्वान किया जाता है। खड्ग और माला देवी की उस शक्ति का प्रतीक हैं जिसके द्वारा वे दिव्य ज्ञान के शस्त्र से काम, क्रोध और मोह का संहार करती हैं। यह स्तोत्र साधक को एक मानसिक यात्रा पर ले जाता है, जो बाह्यतम भूपुर से आरम्भ होकर प्रत्येक आवरण से होते हुए अन्ततः केंद्रीय-बिन्दु तक पहुँचाती है, जहाँ देवी कामेश्वरी परम ऐक्य में विराजमान हैं।
इस प्रार्थना में क्रमशः १६ नित्याएँ (चन्द्रकलाओं के अनुरूप शाश्वती देवियाँ), विविध योगिनियाँ, मुद्रा देवियाँ, सिद्धि देवियाँ तथा प्रत्येक ज्यामितीय आवरण की अधिष्ठात्री दिव्य शक्तियाँ आवाहित की जाती हैं।
खड्गमाला स्तोत्र का उद्गम वामकेश्वर तंत्र में हुआ, जहाँ यह उमा और महेश्वर के संवाद रूप में प्रकट हुआ। उसी से इसका प्रामाणिक तांत्रिक परम्परासम्बन्ध स्थापित होता है। इस स्तोत्र का जप सम्पूर्ण श्री चक्र नवावरण पूजन के फल को प्रदान करने वाला माना गया है, जिससे यह महापूजा केवल नाद के माध्यम से ही सुलभ हो जाती है। यह साधना साधक को प्रत्येक देवशक्ति के अद्वितीय सामर्थ्य के साथ आन्तरिक सामंजस्य स्थापित करने में सहायक होती है और क्रमशः उसे इन दिव्य गुणों को अन्तःस्थ करने तथा अन्ततः यंत्र के केन्द्रस्थ परमेश्वरी देवी के साथ ऐक्य में लीन होने के लिए तैयार करती है।
ललिता सहस्रनाम
ललिता सहस्रनाम, जो ब्रह्माण्ड पुराण में वर्णित है, देवी ललिता त्रिपुर सुंदरी के सहस्र पवित्र नामों का संकलन है और हिन्दू धर्म के सर्वाधिक पूज्य भक्तिग्रन्थों में गण्य है। प्रत्येक नाम दिव्य मातृशक्ति के किसी विशिष्ट गुण, स्वरूप अथवा ब्रह्माण्डीय कार्य का निरूपण करता है, जिससे यह स्तोत्र स्त्रीचैतन्य और उसकी अनन्त अभिव्यक्तियों का पूर्ण कोष बन जाता है।
देवी ललिता केवल श्री यंत्र से सम्बद्ध ही नहीं, अपितु वे स्वयं ही श्री यंत्र हैं। इसका प्रत्येक ज्यामितीय घटक उनका ही दिव्य स्वरूप है — बाह्य चतुरस्र उनके रक्षकों का प्रतीक है, त्रिवलय उनकी ब्रह्माण्डीय लीला का द्योतक है, कमल दल उनकी करुणामयी कृपा का चिह्न है, परस्पर अन्तःसिक्त नवत्रिकोण सृष्टि की समस्त घटनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और केन्द्रस्थ बिन्दु उनकी निराकार, अनन्त उपस्थिति का प्रतीक है। 'श्रीचक्रराजनिलया' यह नाम प्रत्यक्षतः उन्हें श्री चक्र में निवासिनी के रूप में उद्घोषित करता है।
ललिता त्रिशती
ललिता त्रिशती देवी ललिता के ३०० परम पवित्र और गोपनीय नामों का स्तोत्र है, जिसे सहस्रनाम से भी अधिक शक्तिशाली और रहस्यमय माना गया है। इसका उल्लेख ब्रह्माण्ड पुराण में प्राप्त होता है, जहाँ यह स्वयं देवी की आज्ञा से भगवान् हयग्रीव (जो विष्णु के ज्ञानावतार हैं) द्वारा महर्षि अगस्त्य को प्रकट किया गया था।
त्रिशती की विशेष रचना पंचदशी मंत्र के १५ अक्षरों के आधार पर है, जहाँ प्रत्येक अक्षर से बीस दिव्य नाम उत्पन्न होते हैं और इस प्रकार कुल ३०० नामों का संकलन होता है। इस क्रमबद्ध विन्यास का अभिप्राय यह है कि प्रत्येक नाम केवल वर्णन मात्र नहीं, बल्कि एक मंत्रस्वरूप है, जिसमें रहस्यमय आध्यात्मिक तात्पर्य निहित है और जिसका जप अर्थ के बोध के बिना भी प्रचण्ड कम्पनात्मक प्रभाव उत्पन्न करता है। आदि शंकराचार्य की विस्तृत व्याख्या प्रत्येक नाम में अन्तर्निहित गहन, किंतु अस्पष्ट अर्थों को प्रत्यक्ष करती है।
दशमहाविद्याएँ एवं श्री यंत्र
दशमहाविद्याओं और श्री यंत्र का सम्बन्ध सनातन धर्म की सर्वाधिक परिष्कृत आध्यात्मिक उपलब्धियों में से एक है — विविध देवशक्तियों का ऐसा सफल समन्वय जो एकीकृत ज्यामितीय तंत्र में प्रतिष्ठित होकर साधारण आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति से लेकर परमातीत आत्मबोध तक की साधना का साधन बनता है।
श्री यंत्र का प्रधान सम्बन्ध त्रिपुर सुंदरी (जिन्हें ललिता, षोडशी अथवा राजराजेश्वरी भी कहा जाता है) से है, जो महाविद्याओं में तृतीय तथा श्रीविद्या परम्परा की परम अधिष्ठात्री देवी मानी जाती हैं। किन्तु यह सम्बन्ध केवल एक-से-एक साम्य तक सीमित नहीं है। परम्परागत ग्रन्थ श्री यंत्र को त्रिपुर सुंदरी के सम्पूर्ण ब्रह्माण्डीय स्वरूप का ज्यामितीय निरूपण मानते हैं। इसके ९ आवरण उनकी दिव्य अभिव्यक्तियों के भिन्न-भिन्न आयामों का प्रतिनिधित्व करते हैं और केन्द्रस्थ बिन्दु उनके निराकार, परम स्वरूप का प्रतीकत्व करता है।
श्री यंत्र को आप एक दिव्य 'ब्रह्माण्डीय संसद' के रूप में देख सकते हैं, जहाँ समस्त देवशक्तियाँ, जिनमें दशमहाविद्याएँ भी सम्मिलित हैं, अपने-अपने स्थान और कार्य के साथ प्रतिष्ठित हैं। देवी की विविध अभिव्यक्तियाँ — काली (परिवर्तनकारी काल), तारा (मार्गदर्शक तारा), त्रिपुर सुंदरी (परम सौन्दर्य), भुवनेश्वरी (विश्वसत्ता), छिन्नमस्ता (आत्मबलिदान), भैरवी (उग्र अनुग्रह), धूमावती (शून्य में ज्ञान), बगलामुखी (स्तम्भन शक्ति), मातंगी (अन्तर्ज्ञान), तथा कमला (पद्मसमृद्धि) — विशिष्ट ऊर्जाओं को वहन करती हैं, जो श्री यंत्र की संरचना के भिन्न-भिन्न अंशों के माध्यम से प्रकट होती हैं।
‘तंत्र साधना’ ऐप द्वारा श्री यंत्र की पूजा

अब जब आप श्री यंत्र और उसके द्वारा प्रदत्त अनन्त सम्भावनाओं के विषय में इतना जान चुके हैं, तो अगला स्वाभाविक प्रश्न यही है कि इसकी उपासना आरम्भ कैसे की जाए? क्या हम अपने कार्य और दैनिक उत्तरदायित्वों से समय निकालकर इस गूढ़ साधना में प्रविष्ट हो सकते हैं, जो सहस्राब्दियों से गुप्त रखी गई है? यदि किसी साधक को किसी गुरु से प्रत्यक्ष दीक्षा प्राप्त न हुई हो, तो क्या इसका अभ्यास करना सुरक्षित होगा? ऐसे प्रश्न किसी भी जिज्ञासु साधक के मन में स्वाभाविक रूप से उठ सकते हैं।
सनातन धर्म का प्रवाह सदा विभिन्न संधिकालों से होकर व्यतीत हुआ है, और असाधारण ऋषियों ने समय-समय पर प्राचीन साधनाओं को पुनर्जीवित किया है — उनकी पवित्रता की रक्षा करते हुए उन्हें युग की आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला है। महर्षि वेदव्यास ने वेदों को लिखित रूप में संकलित किया, जो सहस्रों वर्षों तक केवल श्रुति-परम्परा से चले आ रहे थे। आदि शंकराचार्य ने अति-आचारनिष्ठ उपासना-पद्धतियों को चुनौती दी और अद्वैत तथा भक्ति का संगम करके एक नवीन मार्ग का निर्माण किया। स्वामी विवेकानन्द ने आवश्यकता देखी कि वेदान्त का प्रचार सम्पूर्ण विश्व में हो; उन्होंने अपने गुरु की आज्ञा पूरी करने के लिए ७ समुद्र पार किये। उनके कार्यों का प्रभाव लोगों को वर्षों बाद समझ आया, किन्तु उनके द्वारा सनातन धर्म का पुनर्जागरण हुआ।
इसी क्रम में ‘तंत्र साधना’ ऐप के संस्थापक ओम स्वामी भी एक विशेष संकल्प लेकर जन्मे। उनके जन्म की यह भविष्यवाणी एक संत ने उनकी माता, मातारानी को दी थी:
मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष में आप एक दिव्य आत्मा को जन्म देंगी। हम में से एक बहुत लम्बे समय के पश्चात् आ रहा है — एक संत।
३० नवम्बर १९७९, शुक्लपक्ष की द्वादशी को, ओम स्वामी का जन्म हुआ। ११ वर्ष की आयु में उन्होंने वैदिक मंत्रपाठ, ज्योतिष और यज्ञ-हवन का अभ्यास आरम्भ किया। वे एकान्त स्थलों पर ध्यान करते, अनेक यज्ञ करते, विविध देवताओं की साधनाएँ और मंत्र जप करते, यहाँ तक कि उन्होंने भगवान शिव की एक तांत्रिक साधना भी सम्पन्न की। तत्पश्चात् उन्होंने कम्प्यूटर कोडिंग में भी प्रावीण्य प्राप्त किया और ऑस्ट्रेलिया में बहु-मिलियन डॉलर का सॉफ़्टवेयर व्यवसाय खड़ा किया। यह सब करते हुए भी वे प्रतिदिन दीर्घकाल तक साधना और ध्यान में रत रहते। सन् २००७ में उन्हें अनुभव हुआ कि अब वे पूर्णतः संसारत्याग करके केवल दिव्य साक्षात्कार की खोज में प्रवृत्त होने के लिए तैयार हैं। उन्होंने अपनी माता को अपने संकल्प की सूचना दी और अनुमति माँगी कि वे अपने समस्त जीवन और ऊर्जा को ईश्वर के निरंतर साक्षात्कार हेतु समर्पित कर सकें। ईश्वर के अस्तित्व का सत्य, वेदों का गहन अध्ययन और साधनाओं की अनवरत साधना अन्ततः उन्हें देवी और भगवान विष्णु के प्रत्यक्ष दर्शन तक ले गई। हिमालय से लौटकर उन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य यह ठहराया कि जिन साधनाओं को उन्होंने किया, उन्हें इस प्रकार संप्रेषित करें कि सम्पूर्ण मानवता उनका लाभ उठा सके।
इसी भाव से ओम स्वामी ने हाल ही में ‘तंत्र साधना’ ऐप उद्घाटित की। यह एक सम्पूर्ण संप्रेषण-तंत्र है, जो उन जागृत तांत्रिक साधनाओं का मार्ग खोलता है, जो परम्परागत रूप से केवल प्रत्यक्ष दीक्षा से उपलब्ध होती थीं। इसमें दशमहाविद्याओं — जो दिव्य चैतन्य के विभिन्न आयामों की देवियाँ हैं — के मंत्रों का प्रवेश है। इन मंत्रों का आह्वान और ऊर्जाकरण स्वयं ओम स्वामी ने किया है, जिससे साधक केवल अक्षर ही नहीं, वरन् जीवित आध्यात्मिक संप्रेषण प्राप्त करते हैं, जो वास्तविक रूपान्तरण का सामर्थ्य रखते हैं। इसमें सृजित थ्री-डी वातावरण पवित्र साधना-स्थलों का अनुभव कराते हैं, जो गहन उपासना को सहायक बनाते हैं। साधक पारम्परिक शव साधना, श्री यंत्र साधना, खण्ड-मुण्ड साधना, पंच-मुण्ड साधना और विविध यज्ञों जैसे तांत्रिक अनुष्ठानों को क्रमबद्ध मार्गदर्शन के साथ कर सकते हैं — इस प्रकार कि प्रामाणिकता बनी रहे और साथ ही आधुनिक परिप्रेक्ष्य में इन्हें साधना-योग्य भी बनाया जा सके। इस ऐप का प्रगतिशील साधना-पथ साधक को उनकी आध्यात्मिक परिपक्वता के अनुसार क्रमशः उच्च साधनाओं की ओर अग्रसर करता है। इस प्रकार यह ऐप परम्परागत गुरु-शिष्य सम्बन्ध का सम्मान करते हुए, योग्य साधकों तक उन्नत शिक्षाओं को भौगोलिक सीमाओं से परे पहुँचाती है।
हमारे इस वैश्विक संयोजकता के युग में, जहाँ सम्पर्क और प्रौद्योगिकी की अपार सम्भावनाएँ हैं, श्री यंत्र और ‘तंत्र साधना’ ऐप हमें यह स्मरण कराते हैं कि अस्तित्व की परम सच्चाइयाँ आज भी हर उस साधक के लिए सुलभ हैं, जो पवित्र ज्यामिति और आत्म-रूपान्तरण के इन गहन रहस्यों में सत्यनिष्ठा से प्रविष्ट होना चाहता है।
संदर्भ
- blog.vinitarashinkar.in - श्री यंत्र को सर्वोच्च यंत्र के रूप में प्रस्तुत करने तथा उसकी आध्यात्मिक महत्ता का विस्तृत अवलोकन
- apps.apple.com - ओम स्वामी की तंत्र साधना अनुप्रयोग की विशेषताओं तथा साधकों के अनुभवों से संबंधित आधिकारिक जानकारी
- mahaavidya.org - श्री विद्या प्रणाली के सुव्यवस्थित स्वरूप में भास्करराय जी का जीवनवृत्त तथा योगदान
- ramanisblog.in - कामाक्षी मन्दिर में आदि शंकराचार्य द्वारा श्री यंत्र की प्रतिष्ठा का ऐतिहासिक विवरण
- forum.amritananda.org - श्री यंत्र साधना में रमण महर्षि के व्यक्तिगत अनुभव एवं उपदेश
- scribd.com - श्री यंत्र के ९ आवरणों में १०८ देवताओं का पूर्ण मानचित्रण
- vedicvaani.com - दशमहाविद्याओं तथा श्री यंत्र पूजन की परम्परागत विधियों के मध्य संबंध
- astrobhava.com - पंचदशी मंत्र के महत्त्व तथा उसके लाभों का विस्तृत निरूपण
- drpallavikwatra.com - खड्गमाला स्तोत्र का विशद विश्लेषण तथा श्री यंत्र पूजन में उसकी भूमिका
- en.wikipedia.org - श्री यंत्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तथा पारम्परिक वर्णनों से संबंधित आधारभूत जानकारी