इस लेख में आप पढ़ेंगे:
- महत्त्व और प्रतीकात्मकता
- तारापीठ मन्दिर
- तिब्बती परम्परा की माँ तारा
- तिब्बती तारा के २१ रूप
- माँ की उपासना
निराशा की निःशब्दता में, जब कोई उत्तर पर्याप्त नहीं होता और कोई प्रयास सफल नहीं प्रतीत होता — तब देवी तर्कों के साथ प्रकट नहीं होतीं। वे प्रकट होती हैं तुम्हें पार ले जाने के लिए — रूप में प्रचण्ड, सार में करुणामयी।
माँ तारा।
वह तुम्हारे अहंकार को नहीं सहलाती — वह तुम्हारी आत्मा को मुक्त करती हैं, ठीक वैसे ही जैसे तंत्र साधना के मार्ग में प्रकट होता है।
महत्त्व और प्रतीकात्मकता
माँ तारा कोई साधारण देवी नहीं हैं। वे दशमहाविद्याओं में द्वितीय स्थान पर विराजमान हैं — वे दस महान तांत्रिक देवियाँ जो परम ज्ञान की मूर्तिमान प्रतीक हैं।
प्राचीन तांत्रिक ग्रन्थों, जैसे रुद्र यामल तंत्र, बृहद् नील तंत्र, और तारा तंत्र, में उनका उल्लेख किसी काल्पनिक कथा की भाँति नहीं, अपितु एक जीवित सत्ता के रूप में होता है; एक तीव्र शक्ति के रूप में जो स्वयं को तभी प्रकट करती है जब साधक पार जाने के लिए सिद्ध होता है।
उनकी एक प्राचीनतम कथा उनकी असीम करुणा को प्रकट करती है। जब समुद्र मन्थन के समय भगवान शिव ने कालकूट विष का पान किया और अचेत हो गए, तब माँ तारा ही थीं जिन्होंने उन्हें जीवनदान दिया।
उन्होंने संहारक शिव को शिशु की भाँति अपनी गोद में रखा और उन्हें जीवनरक्षक अमृत समान स्तनपान कराया। उस क्षण वे उग्र रक्षिका और वात्सल्यमयी जननी दोनों बन गईं। तंत्र का यही तो सार है।
उनका नाम ‘तारा’ का अर्थ है, अर्थात वे जो तारती अथवा पार उतारती हैं। वे हमें भय, अज्ञान, मृत्यु और उस प्रत्येक बन्धन से मुक्त करती हैं जो आत्मा को दुःख से जोड़े रखता है।
उनका रूप चौंकाने वाला प्रतीत हो सकता है — रक्तरंजित जिह्वा बाहर निकली हुई, हाथों में आयुध, उग्र मुखमुद्रा, गले और केशों में सर्प लिपटा हुआ।
किन्तु प्रत्येक चिह्न गूढ़ है: रक्त हमारे सत्य से प्रतिरोध का प्रतीक है, खड्ग उनकी तीक्ष्ण विवेक-बुद्धि है, कैंची अज्ञान के ग्रन्थियों को काटती है और कमल यह दर्शाता है कि हम संसार की कीचड़ से ऊपर उठकर खिल सकते हैं।
वह सर्प उनके पति अक्षोभ्य हैं, जो भगवान शिव का ही एक अन्य रूप हैं।
वे हमारा संहार नहीं करतीं; वे केवल उसे विलीन करती हैं जो वास्तव में हमारा नहीं है।
तारापीठ मन्दिर
जहाँ माँ कोई आलोचनात्मक दृष्टिकोण के बिना प्रतीक्षा करती हैं
यदि माँ बुलाएँ, तो प्रारम्भ करें। उत्तमता की प्रतीक्षा न करें। कल की प्रतीक्षा न करें।

चित्र श्रेयांकन: माँ तारा मूर्ति
कुछ स्थान समय के साथ पवित्र बनते हैं। और कुछ ऐसे होते हैं जो आदि से ही पवित्र रहे हैं — बहुत पहले से, जब हमने समय को मापना आरम्भ भी नहीं किया था।
पुराणों के अनुसार, जब देवी सती ने राजा दक्ष के यज्ञ में स्वयं को अग्नि को अर्पित किया, तब भगवान शिव उनके शरीर को उठाकर दुःख में अंधविभोर होकर विचरण करने लगे।
भगवान विष्णु ने उनके विषाद का अंत करने और सृष्टि में पुनः सम्यक् व्यवस्था स्थापित करने हेतु अपना सुदर्शन चक्र चलाया। देवी सती का शरीर इक्यावन खण्डों में विभाजित हो गया, और जहाँ-जहाँ वे अंग गिरे, वहाँ शक्ति पीठों का प्रादुर्भाव हुआ।
बंगाल स्थित तारापीठ ऐसा ही एक स्थान है।
बृहत् तंत्रसार में वर्णित है —
नेत्रं यस्य पतितं वै, स स्थानं तारा पीठकम्।
जिस स्थान पर देवी सती का नेत्र गिरा, वही स्थान 'तारापीठ' कहलाया।
तारापीठ एक शक्ति पीठ है, जहाँ यह माना जाता है कि देवी सती का नेत्रपटल गिरा था। साथ ही यह तांत्रिक उपासना का एक प्रमुख केन्द्र भी है, जो पूरे भारत से साधकों और संतों को आकर्षित करता है।
यहाँ माँ की आँखें, जो सिन्दूर से अंलिप्त हैं, चमत्कार का वादा नहीं करतीं — वे उससे कहीं अधिक देती हैं: उपस्थिति।
माँ पूर्णता की अपेक्षा नहीं करतीं, वे केवल सत्य चाहती हैं।
यदि तुम अपने हृदय को खुला रखकर आओगे, तो माँ तुम्हें केवल दर्शन ही नहीं देंगी, वे तुम्हारे टूटेपन के साथ बैठेंगी और उसे पूर्ण कर देंगी।
तारापीठ में, एक वटवृक्ष की छाया तले, एक संन्यासी बारह वर्षों तक मौन साधना में लीन रहा—अचल, अदृश्य।
एक दिन, एक जिज्ञासु बालक ने एक पुरानी खोपड़ी लाकर उसकी गोद में रख दी।
संन्यासी ने धीरे से नेत्र खोले। विस्मित होकर वह बुदबुदाया, “माँ, तू तो सदा कोई ना कोई उपाय कर ही लेती है प्रकट होने का।”
और तभी, वह खोपड़ी झपकी। हाँ, उसने पलकें झपकाईं।
आज भी स्थानीय जन कहते हैं कि यदि तुम्हारी भक्ति गहन हो, तो मृत भी नेत्र खोल देते हैं।
क्योंकि तारापीठ में, माँ की दृष्टि सबसे अनपेक्षित स्थलों में छिपी रहती है।
किन्तु माँ केवल यहीं नहीं विराजतीं। वे विभिन्न संस्कृतियों और परम्पराओं में भी समाहित हैं।
तिब्बती परम्परा की माँ तारा
माँ तारा बौद्ध धर्म की प्रमुखतम देवियों में से एक हैं।
बौद्ध परम्परा में उनकी उपस्थिति छठी–सातवीं शताब्दी ईस्वी से मिलती है। उनका प्राचीनतम उल्लेख तांत्रिक ग्रन्थ ‘साधनामाला’ में मिलता है।
महायान बौद्ध धर्म में उन्हें एक स्त्री बोधिसत्त्व (अर्थात् वह जो मानव रूप में ज्ञान को प्राप्त कर चुका है) के रूप में स्वीकार किया गया, और बाद में एक सम्पूर्ण बुद्ध के रूप में। वे करुणा के बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर की मूर्तिमान अभिव्यक्ति मानी जाती हैं।
चित्र श्रेयांकन: तिब्बती माँ तारा मूर्ति
तिब्बती परंपरा के अनुसार, एक बार अवलोकितेश्वर ने संसार के दुःखों को देखा और करुणा से विह्वल होकर अश्रु बहाए।
उनके एक अश्रु से एक कमल प्रकट हुआ, और उस कमल से माँ तारा का उद्भव हुआ। उन्होंने संकल्प लिया, “जब तक संसार में दुःख रहेगा, मैं बनी रहूँगी।”
एक अन्य प्रामाणिक कथा एक तपस्विनी राजकुमारी, येशे दावा, की है, जिन्होंने यह संकल्प लिया कि वे तब तक स्त्री रूप में ही रहेंगी जब तक समस्त प्राणी मुक्त नहीं हो जाते। उन्होंने घोषणा की कि ज्ञान लिंग से परे है।
स्मृति के पार एक समय में, येशे दावा नामक एक राजकुमारी निःशब्द भक्ति में लीन रहती थीं। उन्होंने असंख्य बुद्धों की अटूट प्रेमभाव से सेवा की। जब उनसे कहा गया कि वे पुरुष रूप में जन्म लें ताकि बोधि की प्राप्ति हो सके, उन्होंने मुस्कुराकर कहा, “सत्य का कोई लिंग नहीं होता।”
गहन ध्यान के माध्यम से उन्होंने बोधि प्राप्त की। वे तारा बनीं — वे करुणामयी माता जो समस्त प्राणियों को दुःख से उबारने हेतु प्रकट हुईं।
निष्ठा से किए गए मौन प्रयास की शान्ति में वे उदित हुईं — पूजित होने के लिए नहीं, अपितु हमारे साथ कर में कर रखकर दुःख के पार चलने के लिए।
माँ तारा की साधना ग्रन्थों में प्रतिष्ठित है, जैसे तारा तन्त्र और एकाविंशति तारा स्तोत्रम् (२१ तारा देवियों कि स्तुति), जहाँ उन्हें अभय, रक्षण और मोक्ष की अधिष्ठात्री के रूप में आह्वान किया जाता है।
"जो उद्धार करती हैं" — इस रूप में उनका स्थान वज्रयान बौद्ध परम्परा के हृदय में है, और यह साधना पथ हिमालयी परम्पराओं में सर्वाधिक प्रचलित रहा है।
यद्यपि माँ तारा का उद्भव हिन्दू तन्त्र के हृदय से हुआ, उनकी उपस्थिति तिब्बत में फैली और वज्रयान बौद्ध धर्म में एक नवीन पुष्प की भाँति विकसित हुई।
इस परम्परा में वे २१ रूपों में प्रकट होती हैं, और प्रत्येक रूप एक विशिष्ट शक्ति और गुण का प्रतीक है।
तिब्बती तारा के २१ रूप
1. तारा न्युर्मा पामो
तीव्रगामिनी देवी
2. तारा यङचेन ड्रोळ्मा
प्रज्ञा की देवी
3. तारा सोनम तोब्छे
पुण्य की देवी
4. तारा न्यिंगजे चेन्मो
करुणा की देवी
5. तारा ल्हामो रब्तु
रक्षा की देवी
6. तारा जिग्पा सेल्मा
निर्भयता की देवी
7. तारा शान्ता च्यो
शान्ति की देवी
8. तारा त्रोन्येर चेन्
उग्रता की देवी
9. तारा जिगत्सेन सुम्ले
स्थैर्य की देवी
10. तारा नाम्मे कर्मो
पवित्रता की देवी
11. तारा ड्रोळ्मा येषे
अन्तर्दृष्टि की देवी
12. तारा नामखा त्रोमा
मोक्ष की देवी
13. तारा ऋग्णे मा
चिकित्सा की देवी
14. तारा बर्वे मा
स्पष्टता की देवी
15. तारा मे चेन्मा
तेजस्विता की देवी
16. तारा दोंद्रुब मा
सिद्धि की देवी
17. तारा चूडामणि नामपर जयाल्मा
विजय की देवी
18. तारा मङ्गलम ड्रोळ्मा
इच्छापूर्ति की देवी
19. तारा वङ्ग्दु मा
शक्ति की देवी
20. तारा ऋग्ज्ञिन् मा
साक्षात्कार की देवी
21. तारा समय तारा
भक्ति की देवी
हरी तारा — समस्त ताराओं की मूलशक्ति, अथवा न्युर्मा पामो, का अर्थ है "वह जो तीव्र गति से आती हैं"।
वे विचार के उदय से भी शीघ्र प्रत्युत्तर देती हैं, भय एवं संकट से रक्षण प्रदान करती हैं।
श्वेत तारा दीर्घायु और रोगशमन प्रदान करती हैं।
अन्य रूपों द्वारा कर्मजन्य विघ्नों का क्षय होता है, प्रज्ञा की प्राप्ति होती है, अथवा वे आन्तरिक अन्धकार में मार्गदर्शिका बनती हैं। तथापि, ये समस्त रूप एक ही करुणामयी तत्त्व के भिन्न-भिन्न प्रकट रूप हैं। हिन्दू परम्परा में मा तारा को भी इसी प्रकार की निडर जननी के रूप में जाना गया है, जो आह्वान करने पर तुरन्त प्रकट होती हैं।
तिब्बती तारा साधनाएँ गहन ध्यानयुक्त होती हैं, जिनमें दर्शन, मनन और एकाग्र चेतना का समन्वय होता है। इनके केन्द्र में स्थित होती है एक पावन ध्वनि-तरंग, जो मन को शान्त करती है, हृदय को उद्घाटित करती है, और जगन्माता की उपस्थिति का आह्वान करती है।
माँ की उपासना
जिस प्रकार भगवान् शिव हृदय में त्याग को जागृत करते हैं, और वेदमाता गायत्री वैराग्य को पुष्पित करती हैं, उसी प्रकार मा तारा, भय-नाशिनी, समस्त बन्धनों में सबसे गहन, अर्थात भय के बंधन, को छिन्न करती हैं और मुक्ति प्रदान करती हैं।
माँ तारा की उपासना एक समय श्मशानों, पर्वतीय गुहाओं और वनवासियों के आश्रमों में छिपी रहती थी — उनकी दृष्टि से दूर जो अभी पात्र नहीं थे।
इन साधनाओं ने साधक को सांसारिक भय से ऊपर उठने और सामाजिक संस्कारों की जड़ता को भंग करने में सहायता की।
अनुशासन और शुद्धिकरण के माध्यम से उन्होंने देवी का आह्वान किया और अनुभव किया कि जो भय उन्हें रोकता था, वही अब जागरण की अग्नि बन गया है।
वे उनकी आकांक्षा करते थे, और निराकार, असीम जगन्माता में एकत्व की तृष्णा रखते थे।

चित्र श्रेयांकन: माँ उग्र-तारा चित्रकृति
क्या आप भी उसी प्रकार मा के पथ की ओर आकर्षित हैं? पर आपके पास श्मशान में बैठने का समय, मार्गदर्शन, या अवसर नहीं है?
यदि भीतर आकांक्षा है, किन्तु जीवन सीमित प्रतीत होता है, तो यहाँ एक सरल उपाय है जिससे आप मा की ओर अपनी यात्रा आरम्भ कर सकते हैं।
क्योंकि तंत्र में जागरण किसी स्थान पर निर्भर नहीं होता।
यह आपकी श्रद्धा पर निर्भर करता है — आपकी आन्तरिक निष्ठा पर। जब वह उपस्थित हो, तो आपके घर का एक निःशब्द कोना भी पावन साधनास्थल बन जाता है।
माँ तारा, तंत्र साधना ऐप पर
तंत्र साधना ऐप के माध्यम से अब आप अपने ही घर से माँ तारा की श्मशान साधना कर सकते हैं।
यह ऐप दशमहाविद्याओं को जीवन में जागृत करने पर केन्द्रित है। इसके माध्यम से आप क्रमशः प्रत्येक महाविद्या की साधना कर सकते हैं — माँ काली से आरम्भ करके, माँ कमलात्मिका पर पूर्णता को प्राप्त करते हुए।
माँ तारा की साधना सरल मंत्र-जप से प्रारम्भ होती है, और धीरे-धीरे अग्निहोत्र की निर्देशित आहुतियों द्वारा गहराई प्राप्त करती है।
समय के साथ यह साधना आपको एक प्रतीकात्मक श्मशान की ओर ले जाती है — एक आन्तरिक क्षेत्र, जहाँ बाहरी कोलाहल मौन हो जाता है और भक्ति बोलने लगती है।
यह यात्रा शीघ्रता के लिए नहीं है। प्रत्येक चरण तभी प्रकट होता है जब आप उसके लिए पात्र होते हैं। गहन स्तर तब तक प्रकट नहीं होते जब तक आपकी श्रद्धा उन्हें आह्वान न करे।
यह कोई शॉर्टकट नहीं है — यह एक पावन सेतु है, जो तंत्र की प्राचीन अनुशासन-परम्परा को आधुनिक मार्गदर्शन के स्थिर हाथ से जोड़ता है।
यह आपको सच्चाई, स्थिरता और श्रद्धा के साथ मा की सजीव उपस्थिति की ओर अग्रसर होने का अवसर देता है।
ऐप में समाहित सभी साधनाएँ स्वयं हिमालयवासी सिद्ध महात्मा, दशमहाविद्या परम्परा के साकार गुरु, ओम स्वामी, द्वारा प्रकट की गईं और निर्देशित हैं। (External video hyperlink here)
माँ की जागृति
माँ तारा धार्मिक सीमाओं, शास्त्रीय व्याख्याओं और यहाँ तक कि भाषा के बन्धनों से परे हैं। उन्हें केवल सनातन धर्म या बौद्ध परम्परा तक सीमित नहीं किया जा सकता।
वे अनादि माता हैं, अन्तरात्मा की मार्गदर्शिका हैं — वे शक्ति हैं जो तब उदित होती हैं जब शेष सब कुछ विघटित हो जाता है।
उन्हें पुकारना मात्र किसी देवी का आवाहन नहीं, बल्कि अपने भीतर स्थित साहस, स्पष्टता और करुणा के स्रोत को स्पर्श करना है।
यह अग्निपथ से होकर इस बोध तक पहुँचना है कि आप जले नहीं, अपितु जागे हो।
सच्चे साधकों के लिए यह प्राचीन पथ आज भी जीवित है। इसके लिए न तो किसी मठ की आवश्यकता है, न पर्वतों की। केवल यह आकांक्षा चाहिए — बैठने की, अनुभव करने की, और विश्वास करने की।
वे कोई दूरस्थ उपास्या देवी नहीं हैं। वे वह सत्य हैं जिसे भीतर खोजा जाता है, जब समस्त पात्र (भूमिकाएँ) उतर जाते हैं और केवल मौन शेष रह जाता है।
उनके साथ चलना है प्रकाश में चलना, भले ही मार्ग अन्धकारमय हो।
वे अग्रणी हैं। हम उनके पीछे चलते हैं।